सावन में जब कानों में पड़े कजरी के बोल

टीम हिन्दी

लोकगीतों की रानी कजरी सिर्फ गाने भर ही नहीं है, बल्कि यह सावन की सुंदरता और उल्लास को दिखाती है. सावन का महीना आते ही जब हर तरफ हरियाली छा जाती है, झूले पडने लगते हैं तो इस खास मौके पर लड़कियां कजरी गुनगुनाने लगती हैं. यह लोकगीत अर्ध-शास्त्रीय गायन की विधा के रूप में विकसित हुआ और इसके गायन में बनारस घराने की खास दखल है. नई ब्याही बेटियां जब सावन में अपने पीहर वापस आती हैं, तो बगीचों में भाभी और बचपन की सहेलियों संग कजरी गाते हुए झूला झूलती हैं.

पहले समाज में लोग अपनी परंपराओं का विशेष ख्याल रखते थे कारण कि इन्हीं से हमारी पहचान है. लेकिन आज समाज आधुनिकता की अंधी दौड़ में इतना आगे निकल चुका है कि उसे सिर्फ अपना ख्याल है. लोगों के पास समय नहीं कि वह पीछे मुड़कर देख सकें. यह हमारी संस्कृति और समाज के लिए काफी बुरा दौर है. हम खुद को खोते जा रहे.

बता दें कि बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश की कजरी लोकगायन की वह शैली है, जिसमें परदेस कमाने गए पुरुषों की अकेली रह गईं स्त्रियां अपनी विरह-वेदना और अकेलेपन का दर्द व्यक्त करती हैं. नवविवाहिताएं कजरी के माध्यम से मायके में छूट गए रिश्तों की उपेक्षा की वेदना प्रकट करती हैं. स्त्रियों द्वारा समूह में गाए जाने वाली कजरी को ढुनमुनिया कजरी कहते है. विंध्य क्षेत्र में गाई जाने वाली मिर्जापुरी कजरी में सखी-सहेलियों, भाभी-ननद के आपसी रिश्तों की मिठास और खटास के साथ सावन की मस्ती का रंग घुला होता है.

कजरी गीत का एक प्राचीन उदाहरण तेरहवीं शताब्दी के बड़े सूफी शायर अमीर ख़ुसरो की बहुप्रचलित रचना है- ‘अम्मा मेरे बाबा को भेजो जी कि सावन आया.’ अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर की एक रचना ‘झूला किन डारो रे अमरैया’ भी बेहद प्रचलित है.

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ब्रज और भोजपुरी के अलावा संस्कृत में भी कुछ कजरी गीतों की रचना की है. लगभग सभी शास्त्रीय गायकों और वादकों ने कजरी की पीड़ा को सुर दिए हैं. गिरिजादेवी की आवाज़ और बिस्मिल्लाह खां की शहनाई में कजरी की वेदना शिद्दत से महसूस होती है. भोजपुरी लोकगायिका विंध्यवासिनी देवी और शारदा सिन्हा के गाए कजरी गीत हमारी अनमोल धरोहर हैं. हिंदी और भोजपुरी सिनेमा में भी कजरी गीतों का खूब प्रयोग हुआ है.

गीतकार शैलेन्द्र का लिखा फिल्म ‘बंदिनी’ का यह कजरी गीत आज भी सिनेमा में कजरी गीतों का मीलस्तंभ बना हुआ है !
अब के बरस भेज भैय्या को बाबुल
सावन में लीजो बुलाए रे
लौटेंगी जब मेरे बचपन की सखियां
दीजो संदेशा भिजाए रे।

अम्बुवा तले फिर से झूले पड़ेंगे
रिमझिम पड़ेंगी फुहारें
लौटेंगी फिर तेरे आंगन में बाबुल
सावन की ठंडी बहारें
छलके नयन मोरा कसके रे जियरा
बचपन की जब याद आए रे। ..

बैरन जवानी ने छीने खिलौने
और मेरी गुड़िया चुराई
बाबुल थी मैं तेरे नाज़ों की पाली
फिर क्यों हुई मैं पराई
बीते रे जुग कोई चिठिया न पाती
ना कोई नैहर से आए रे|

Sawan mei sune kajri ke mithe bol

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