सौराठ: यहां लगता है दूल्हों का मेला

आपने मेला देखा होगा. आनंद लिया होगा. क्या कभी ऐसा मेला सुना है, जहां विवाह तय होता है. जहां संभावित दूल्हा आते हैं, विवाह करने के लिए. नहीं. तो आइए, हम बताते हैं आपको मिथिलांचल की एक समृद्ध परंपरा के बारे में. बिहार का उत्तरी भाग और नेपाल के तराई से सटा हुआ मिथिलांचल अपनी समृद्ध परंपरा के लिए जाना जाता है. मधुबनी जिला के सौराठ गांव में एक मेला का आयोजन होता है, जिसे सौराठ सभा कहा जाता है. आम बोलचाल की भाषा में मिथिला से बाहर के लोग इसे दूल्हों का मेला कहते हैं.

मिथिलांचल क्षेत्र में मैथिल ब्राह्मण दूल्हों का यह मेला प्रतिवर्ष ज्येष्ठ या अषाढ़ महीने में सात से 11 दिनों तक लगता है, जिसमें कन्याओं के पिता योग्य वर को चुनकर अपने साथ ले जाते हैं और फिर चट मंगनी पट ब्याह वाली कहावत चरितार्थ होती है. इस सभा में योग्य वर अपने पिता व अन्य अभिभावकों के साथ आते हैं. कन्या पक्ष के लोग वरों और उनके परिजनों से बातचीत कर एक-दूसरे के परिवार, कुल-खानदान के बारे में पूरी जानकारी इकट्ठा करते हैं और दूल्हा पसंद आने पर रिश्ता तय कर लेते हैं.

हालांकि, आधुनिक युग में इसकी महत्ता को लेकर बहस जरूर तेज हो गई है. सौराठ सभा मधुबनी जिले के सौराठ नामक स्थान पर 22 बीघा जमीन पर लगती है. इसे सभागाछी के रूप में भी जाना जाता है. सौराठ गुजरात के सौराष्ट्र से मिलता-जुलता नाम है. गुजरात के सौराष्ट्र की तरह यहां भी सोमनाथ मंदिर है, मगर उतना बड़ा नहीं. सौराठ और सौराष्ट्र में साम्य शोध का विषय है.

स्थानीय लोग बताते हैं कि करीब दो दशक पहले तक सौराठ सभा में अच्छी-खासी भीड़ दिखती थी, पर अब इसका आकर्षण कम होता दिख रहा है. सौराठ सभा में पारंपरिक पंजीकारों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है. यहां जो रिश्ता तय होता है, उसे मान्यता पंजीकार ही देते हैं. कोर्ट मैरिज में जिस तरह की भूमिका दंडाधिकारी की है, वही भूमिका इस सभा में पंजीकार की होती है.

पंजीकार के पास वर और कन्या पक्ष की वंशावली रहती है. वे दोनों तरफ की सात पीढ़ियों के उतेढ़ (विवाह का रिकॉर्ड) का मिलान करते हैं. दोनों पक्षों के उतेढ़ देखने पर जब पुष्टि हो जाती है कि दोनों परिवारों के बीच सात पीढ़ियों में इससे पहले कोई वैवाहिक संबंध नहीं हुआ है, तब पंजीकार कहते हैं, अधिकार होइए! यानी पहले से रक्त संबंध नहीं है, इसलिए रिश्ता पक्का करने में कोई हर्ज नहीं.

बताते हैं कि मैथिल ब्राह्मणों ने 700 साल पहले करीब सन् 1310 में यह प्रथा शुरू की थी, ताकि विवाह संबंध अच्छे कुलों के बीच तय हो सके. साल 1971 में यहां करीब डेढ़ लाख लोग आए थे. 1991 में भी करीब पचास हजार लोग आए थे, पर अब आगंतुकों की संख्या काफी घट गई है।

Saurath

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