गुरुवार, 26 दिसंबर 2024
Close
Home-Banner संपूर्ण भारत संस्कृति सभ्यता

फुलकारी…पंजाब की गलियों से विदेशों तक

फुलकारी…पंजाब की गलियों से विदेशों तक
  • PublishedOctober , 2023

phoolkari

PHULKARI: भारतीय संस्कृति के ना जाने कितने रंग हैं। जहां भी जाओ आपको कुछ नया देखने, सुनने, पहनने और चखने को तो मिल ही जाएगा। जी हां इन्हीं विभिन्न् रंगों की सौगात से निकलकर भारत के उत्तर पूर्वी राज्य पंजाब हो आइये। आपको वहां के खाने से लेकर पहनावे तक ने अपना मुरीद ना बना लिया तो कहना। कहते तो यहां तक है कि पंजाब में हर घर में एक ना एक सिंगर जरूर होता है। हो भी क्यूं ना। पंजाब की बोली, वहां के वाशिंदों की खुली आवाजें अपना एक अलग मुकाम बनाने को हमेशा से आतुर रहे हैं। इन्हीं खुबियों के बीच पंजाब की एक लोक कला है फुलकारी। है तो यह कशीदे की कला लेकिन जब यह भारत के अलग अलग रंगों से होकर गुजरती है तो इसकी तासीर में सिर्फ और सिर्फ लुभाना ही होता है।

भारतीय संस्कृति में पंजाब का योगदान बहुत ज्यादा है। चाहे संगीत हो या फिर कुछ और। इसी समृद्ध परंपरा को सहेजता पंजाब अपने फुलकारी कला से सब को दीवाना बना देता है। पंजाब में लाजवंती कंचन, परांठा बूटी, चोप, सूरजमखी और ना जाने क्या क्या, लगभग 52 तरह की डिजाइन को कपड़ो पर उतारा जाता है। वैसे तो जब आप फुलकारी को शब्द विन्यास के स्तर पर देखेंगे तो सामान्य तौर पर ही आप इसके विच्छेद से समझ सकते हो कि यह फूल और कारी दो शब्दों से मिलकर बनी है। फुलकारी कला में दुपट्टे या सादे सूती कपड़ों पर फूलों की कलाकारी की जाती है। अरे रुकये यह कलाकारी कोई महक वाली फूलों की नहीं बल्कि धागों की मदद से कशीदा करने की कला है।

कहते हैं फुलकारी की उत्पत्ति सातवीं सदी की है। हालांकि पंजाब की फुलकारी को पूरी दुनिया ने प्यार दिया है। कहते तो यह भी है कि कभी भारत का ही हिस्सा रहे पाकिस्तान के मुल्तान से इसकी जड़ें जुड़ी हैं। पहले के समय में यह कढ़ाई मुख्य रूप से अविभाजित भारत के पंजाब और इसके हरियाणा से जुड़े कुछ इलाकों में की जाती थी। आपको तो मालूम ही होगा कि फुलकारी की कलाकारी को सिल्क धागे की चमक और भी आकर्षक बना देती है। हालांकि पंजाब की फुलकारी कुछ अलग विशेषता भी है। इस कलाकारी में चटखारे रंग जैसे लाल, पीला और नारंगी का प्रयोग कुछ जाता ही देखा जाता रहा है। पंजाब की स्थानीय शादियों और अन्य शुभ अवसरों पर इसे उपहार के रूप में भी देने का काफी प्रचलन रहा है।

फुलकारी की यह शैली के बारे में वहां की रहने वाली लाजवंती जी बताती है कि बंटवारे के बाद भारत आई मेरी नानी के साथ यह कला पाकिस्तान से आई थी। उन्होंने पांच साल की उम्र से ही नानी की देखरेख में अपने कोशिश को अंजाम देना शुरू कर दिया था। कहते हैं ना जब आपका शौक जब जुनून बन जाता है तो यह एक नई इबारत लिख देता है। इसकी जीती जागती मिसाल हैं लाजवंती जी। इनकी इस कला में रूची और अपनी कलाकारी की मदद से इसके अलग पहचान ने इन्हें पद्म श्री पुरस्कार पाने वाली की पंक्ति में ला कर खड़ा कर दिया। इन्होंने अपने साथ साथ सैकड़ों महिलाओं को इस कला की मदद से आत्मनिर्भर बनाया।

लोक कला की यह पहचान और बाजार में इसकी पसंद हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए किसी वरदान से कम थोड़ी है। इन कलाओं की मदद से ना जाने कितनी औरतें अपनी तथा अपने परिवार की जरूरतों को पूरा कर एक मजबूत और समृद्ध परिवार और समाज का निर्माण करती हैं। फुलकारी की इस कला को विदेशों की बाजारों में भी खूब पसंद किया जाता है। समय के साथ साथ फुलकारी सूट और साड़ी के अलावे अब स्टाल, क्रॉप टॉप व शार्ट कुर्ती पर भी आपको देखने को मिल जाएगी।

और पढ़ें-

हिमालय की कड़ियां…भाग(1)

भारत में पान के एक नहीं, है हजारों रंग…

अचार का विचार आख़िर आया कहां से..जानिए हम से

Written By
टीम द हिन्दी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *