21वीं सदी में भी है गुरुकुल परंपरा

टीम हिन्दी
वाराणसी के नरिया स्थित रामनाथ चैधरी शोध संस्थान में तीन दिवसीय वैदिक धर्म महासम्मेलन हुआ। महर्षि दयानंद के काशी शास्त्रार्थ की 150वीं जयंती के उपलक्ष्य में सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के इस आयोजन का उद्घाटन गुजरात के राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने किया। राज्यपाल ने कहा है कि अंधविश्वास से दूर रहने के लिए युवा पीढ़ी को धर्म और संस्कारों का ज्ञान होना आवश्यक है। राज्यपाल ने शिक्षा के क्षेत्र में फिर से गुरुकुल की परम्परा स्थापित करने पर जोर दिया ताकि भारतीय संस्कृति का पोषण हो और वेदों में समाहित विज्ञान जनसाधारण तक पहुंच सके।
अब सवाल उठता है कि माननीय राज्यपाल ने जिस प्रकार से गुरुकुल परंपरा की बात कही, आखिर वह क्या है ? आज यह कितना प्रासंगिक है ? गुरुकुल का आशय है वह स्थान या क्षेत्र, जहां गुरु का कुल यानि परिवार निवास करता है। प्राचीन भारत में शिक्षक ही गुरु माना जाता था और उसका परिवार उसके यहां शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थियों से ही पूर्ण माना जाता था।
उपनिषदों में लिखा गया कि मातृ देवो भव:, पितृ देवो भव:, आचार्य देवो भव:। यही कारण है कि सम्पूर्ण प्राचीन भारत के वांग्मय से लेकर अधुनातन तक में हमें इस गुरुकुल व्यवस्था के दिग्दर्शन होते हैं। गुरु की महत्ता को प्रतिपादित करने के लिए यहां तक कह दिया गया है कि गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वर, गुरु साक्षात् परमं ब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नम:। अर्थात- गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है, गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूं। गुरु की महिमा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिसे इस ब्रह्माण्ड का कारण और नियंता माना जाता है उसके समकक्ष गुरु को स्थान दिया गया है। इस गुरुकुल व्यवस्था की परंपरा हमें बताती है कि देश में शिक्षा प्रणाली की यह व्यवस्था कितनी अधिक श्रेष्ठ थी, जिसमें कि शिक्षा के स्तर पर अमीर-गरीब का कोई भेद नहीं। श्री कृष्ण और बलराम गुरुकुल में उस ब्राह्मण बालक सुदामा के साथ शिक्षा ग्रहण करते हैं, जिसके पास कोई पारिवारिक संपत्ति नहीं होती। ऐसे एक नहीं, अनेक अनुपम उदाहरण गुरुकुल शिक्षा पद्धति के दिखाई देते हैं।
उत्तररामचरित में वाल्मीकि के आश्रम में लव-कुश के साथ पढ़ने वाली आत्रेयी नामक स्त्री का उल्लेख हुआ है। जो इस बात का पुष्ट प्रमाण है कि सह-शिक्षा का प्रचार भारत में प्राचीनकाल से रहा है। इसी प्रकार मालती-माधव में भी भवभूति ने भूरिवसु एवं देवराट के साथ कामन्दकी नामक स्त्री के एक ही पाठशाला में शिक्षा प्राप्त करने का वर्णन किया है। भवभूति आठवीं शताब्दी के कवि हैं। भवभूति के समय भी बालक-बालिकाओं की सह-शिक्षा का प्रचलन अवश्य था। इसी प्रकार पुराणों में कहोद और सुजाता, रूहु और प्रमदवरा की कथाएं वर्णित हैं। इनसे ज्ञात होता है कि कन्याएं बालकों के साथ-साथ पाठशालाओं में पढ़ती थीं तथा उनका विवाह युवती हो जाने पर होता था।
किंतु जब देश में अंग्रेजी राज आया और लॉर्ड मैकाले ने बाबू बनाने वाली तथा अंग्रेज भक्त भारतीयों के निर्माण के लिए आधुनिक शिक्षा के नाम पर अपनी वैचारिकी परोसने का काम किया, साथ में योजनाबद्ध गुरुकुलों का नाश किया। उस समय गुरुकुल शिक्षा पद्धति का मखौल उड़ाते हुए अंग्रेज परस्त और कम्युनिष्ट मित्र बढ़-चढ़ कर आगे आए थे। लेकिन अब उन्होंने भी जान लिया कि आधुनिकता कि नाम पर दी जाने वाली सिर्फ अंग्रेजी शिक्षा से योग्य और उत्तम पीढ़ियां नहीं बनाई जा सकती हैं। बिना संस्कार जोड़े श्रेष्ठ संततियों का निर्माण नहीं होता है। चलो देर से ही सही देश के अंग्रेजी बौद्धिक वर्ग को यह बात समझ में तो आई। भारतीय चिंतन से प्रेरित बौद्धिक वर्ग तो कब से यह मांग कर रहा है कि विद्यालयीन और महाविद्यालयों में गुरुकुल जैसी श्रेष्ठ परंपरा को जोड़ने के प्रयास शुरू किए जाएं।
प्राचीन भारत में, गुरुकुल के माध्यम से ही शिक्षा प्रदान की जाती थी। इस पद्धति को गुरु-शिष्य परम्परा भी कहते है। इसका उद्देश्य था:
– विवेकाधिकार और आत्म-संयम
– चरित्र में सुधार
– मित्रता या सामाजिक जागरूकता
– मौलिक व्यक्तित्व और बौद्धिक विकास
– पुण्य का प्रसार
– आध्यात्मिक विकास
– ज्ञान और संस्कृति का संरक्षण
गुरुकुल में छात्रों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाता था:
वासु – 24 साल की उम्र तक शिक्षा प्राप्त करने वाले।
रुद्र- 36 साल की उम्र तक शिक्षा प्राप्त करने वाले।
आदित्य- 48 साल की उम्र तक शिक्षा प्राप्त करने वाले।
हमें गुरुकुल को समझने की जरुरत है कि वह कैसे काम करता है, अतीत में समाज कैसा दिखता था और वर्तमान में गुरुकुल प्रशिक्षण का उद्देश्य को कैसे पूरा किया जा सकता है। यह सिर्फ अतीत को जानने के लिए ही नहीं है. दोनों शिक्षा प्रणाली का समन्वय होना अनिवार्य है। हमें ये नहीं भूल सकते हैं कि गुरुकुल प्रणाली उस समय की एकमात्र शिक्षा प्रणाली थी। छात्रों ने इस प्रणाली के जरिये शिक्षा के साथ सुसंस्कृत और अनुशासित जीवन के लिए आवश्यक पहलुओं को भी पढ़ाया गया था। छात्र मिलकर गुरुकुल छत के नीचे रहते थे और वहां एक अच्छी मानवता, प्रेम और अनुशासन था। यहां पर छात्रों को बुजुर्गों, माता, पिता और शिक्षकों का सम्मान करने की अच्छी आदतें सिखाई जाती हैं। प्राचीन काल की गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था को भुलाया ही नहीं जा सकता है जहाँ संस्कार, संस्कृति और शिष्टाचार और सभ्यता सिखाई जाती हो।
21vi sadi mei bhi hai gurukul parampara
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