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21वीं सदी में कैसी है हिन्दी की स्थिति ?

21वीं सदी में कैसी है हिन्दी की स्थिति ?
  • PublishedNovember , 2019

टीम हिन्दी

हिन्दी हमारे देश की सर्व प्रमुख भाषा है। इसके बिना भारत में किसी को भी अखिल भारतीय स्वीकृति मिलनी कठिन है। यह अपने आप में हिन्दी भाषा की व्यापकता है कि राष्ट्रभाषा के रूप में इसकी पहचान है। हिन्दी का विकास हिन्दी के अखबार कर रहे हैं। हिन्दी फिल्में कर रही हैं और दूरदर्शन के चैनल कर रहे हैं। हिन्दी को कृपा की नहीं बल्कि प्रेम की जरूरत है। हिन्दी सत्ता की नहीं बल्कि प्रारंभ से ही जनता की भाषा रही है और इसका विकास राजदरबारों में नहीं बल्कि जनता के हृदय में हुआ है।

मुगल काल में राजभाषा फारसी थी, लेकिन उसी समय भक्तिकालीन साहित्य हिन्दी में लिखा गया। जिसे लोक स्वीकृति मिली। आज हिन्दी बोलने वालों की संख्या विश्व में सर्वाधिक है और इसका आंकड़ा दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। विश्व के अनेक देशों में हिन्दी बोली जाती है।

वैश्वीकरण के दौर में एक तरफ सैकड़ों भाषाएं मिट रही हैं, दूसरी तरफ एक सवाल है कि क्या आज ज्ञान और विकास के लिए हिन्दी की कोई अहमियत बची है।  इसका जवाब ‘हां’ में हो सकता है। मुख्य सवाल है, ज्ञान और विकास के लिए हिन्दी की अहमियत कैसे है। खासकर जब नए उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया जरूर हो ओर दुनिया पश्चिमी आर्थिक वर्चस्व की तरह अंग्रेजी के वर्चस्व की छाया में हो, यह प्रश्न अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। यह जानना दिलचस्प होगा कि ज्ञान या सोच की प्रक्रिया के आधुनिकीकरण में हिन्दी समेत भारतीय भाषाओं की क्या भूमिका हो सकती है।

आज पश्चिमी ढंग से पॉप, संगीत, नृत्य ओर जीवनशैली की धूम है। शहरों और हाई-वे पर मैकडोनल्ड्स, पिज्जा हट, केएफसी की अटूट श्रृंखलाएं हैं। इनमें नौजवानों के नए झुंड, इंडिया का एक बिंदास चेहरा दिखाते हैं। वे मॉल के दीवाने हैं, जमाने से उतने ही बेपरवाह। इसके अलावा, पॉप राजनीति है। ये सभी वैश्वीकरण के नए सांस्कृतिक शिक्षालय हैं। इनमें अंग्रेजी पूरी चमक-दमक के साथ मौजूद है। बदलते परिदृश्य में समृध्द विरासतवाली भारतीय भाषाएं असमय बूढी हो गई सी लगती हैं।

मैथिलीशरण गुप्त के अनुज और कवि सियारामशरण गुप्त ने अपने लेख ‘अन्य भाषा से मोह’ में आजादी से पहले लिखा था, ‘यह बात गलत है कि पलासी की लडाई में थोडे से अंग्रेजों ने हिंदुस्तान जीता। उस दिन उनकी जीत अवश्य हुई थी, परंतु वह जीत हिंदुस्तान की पराजय नहीं थी। जिस दिन और जिस जगह निश्चित रूप से हमारी हार हुई, इसका उल्लेख स्कूल के इतिहास में नहीं मिलता। इतिहास की यह बहुत बडी घटना बाह्य क्षेत्र में घटित ही नहीं हुई। इसका मुख्य क्षेत्र हमारा मस्तिष्क और हृदय था।…हमारे इस आभ्यांतर की विजय, विजेता की भाषा द्वारा ही संभव थी।’ (झूठ-सच) आज ऐसा लगता है कि इस किस्म की बौध्दिक पराजय, गुलामी या आत्मविसर्जन लज्जा का नहीं, गौरव का मामला है।

इसमें संदेह नहीं कि शिक्षा के बाजारीकरण ने भारतीय भाषाओं के ज्ञान को बुरी तरह प्रभावित किया हैं अंग्रेजी ने आधुनिकता का अर्थ संकुचित कर दिया। अब फैसन अंग्रेजी झाडना और मुक्त आचरण ही आधुनिकता है। हिन्दी शिक्षण का स्तर बहुत खराब हैं। हिन्दी शिक्षक ही सबसे निष्क्रिय आलसी और आत्मलिप्त हैं हिन्दी में अनुसंधान कार्य ऐसे होने चाहिए जो नए तथ्यों को प्रकाश में लाएं भाषा और साहित्य की समझ में इजाफाब करें।

हिन्दी शिक्षण को समृद्व करें और देश के विकास के काम आएं पर आज के विश्वविद्यालयों में ये बासी मिक्सचर से अधिक कुछ नहीं होते। साहित्य एक ज्ञान है कई बार ज्ञान का चरम रूप है पर लेखक शिक्षक औश्र बुध्दिजीवी ज्ञान के इस किले को वंचना का किला बना देने में तनिक संकोच नहीं करते। पर जीवन और शिक्षा क्षेत्र में भाषा को हल्के-फुल्के ढंग से लेते हैं जो गलत है। हमें समझलना होगा कि अपनी जातीय भाषा का अच्छा ज्ञान जरूरी है क्योंकि यह हमें हमारी जडाें से जोडती है। कोई भी मौलिक जनोन्मुख और अर्थपूर्ण सोच तभी संभव है जब आदमी उधार की भाषा की जगह उस भाषा में सोचे जिसमें वह सांस लेता है।

अंग्रेजी की दादागीरी भले चारों तरफ छाई हो भारतीय भाषाओं के बिना बहुमुखी शैक्षिक विकास की तरफ बढना मुश्किल हैं इधर पुन: एक लक्षण दिखा रहा कि बाजार शिक्षा और राजनीति में हिन्दी की जरुरत बढी है। हिन्दी प्रतिष्ठा और नए-नए रोजगार दे रही  हैं। हिन्दीतर राज्यों और विदेशों में हिन्दी सीखने के प्रति उत्सुकता बढी है खुद हिन्दी क्षेत्रों में साक्षरता बढने के साथ-साथ हिन्दी माध्यम से उच्च शिक्षा चाहने वाले विद्यार्थियों की संख्या बढी है। हिन्दी सीखने और हिन्दी माध्यम से उच्चतर शिक्षा की मांग के विस्तृत दायरों को देखते हुए जब हिन्दी शिक्षण व्यवस्था की ओर नजर जाती है। निराशा होती है अंग्रजी का अच्छा स्तर ज्ञान का नया भंडार और विकासित सूचना प्रौद्योगिकी न हो। कई बहाना बनाते है कि आजादी के बाद हिन्दी अंग्रेजी की जगह नहीं ले सकी इसलीए देशहित में अंग्रेजी के  ही रास्ता पकडना उचित होगा हिन्दी में शिक्षा के बारे  में अधिक सोच ही क्यों जाए।

आज जब ‘नॉलेज सोसाइटी’ की चर्चा होती है, इस पर सोचना चाहिए कि यह कैसे ज्ञानियों को लेकर बना समाज होगा। एक सचमुच के ज्ञानी या समझदार समाज को तर्कप्रिय, मूल्य-उन्मुखी और जिम्मेदार समाज भी होना होगा। ज्ञान के बाजार रूपों को देखकर यह नहीं लगता है कि इस ज्ञान का वंचितों के प्रति संवेदना, प्रेम, त्याग, निर्भीकता और लोकहित में प्रयोगों से कोई संबंध नहीं है, ज्ञानी समाज में ज्ञानी हमारे जनतंत्र में अपने सुखतल्ले बनाने में ज्यादा व्यस्त दिखते हैं, आम भारतीय लोगों की चिंता करते हुए कम दिखाई पडते हैं। ज्ञान का अर्थ महज सूचना नहीं है इसलिए सूचना-आधारित ज्ञान को मूल्य-आधारित ज्ञान से जोडे बिना आधुनिकीकरण का मानवीय चेहरा निर्मित नहीं किया जा सकता। आज भाषा का अर्थ सूचनात्मक भाषा, बाजार की भाषा और कामचलाऊ भाषा होता जा रहा है। अंग्रेजी हो या हिन्दी उसे वर्चस्व हथियार बनाया जा रहा है। यह वर्तमान आधुनिकीकरण के इकहरे, एकधु्रवीय और बहिष्कारपरक होने का लक्षण है। नई स्थितियों में देखना होगा कि हिन्दी-शिक्षण बाजार की जरूरतों से जुडते हुए भाषा प्रवीणता के साथ मूल्य चेतना और सौंदर्यबोध को विकसित करने में कैसी भूमिका निभाता है। उसमें जीवन के लिए कितना स्पेस है।

21vi sadi mei kesi hai hindi ki stithi

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टीम द हिन्दी

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