ये है रामलीला मंचन का इतिहास
टीम हिन्दी
रामलीला की शुरूआत कब और कैसे हुई? दुनिया में किसने किया था सबसे पहली रामलीला का मंचन? इसका कोई प्रामाणिक दस्तावेज उपलब्ध नहीं है। भावुक भक्तों की दृष्टि में यह अनादि है। एक किंवदंती का संकेत है कि त्रेता युग में श्रीरामचंद्र के वनगमनोपरांत अयोध्यावासियों ने 14 वर्ष की वियोगावधि राम की बाल लीलाओं का अभिनय कर बिताई थी। तभी से इसकी परंपरा का प्रचलन हुआ। एक अन्य जनश्रुति से यह प्रमाणित होता है कि इसके आदि प्रवर्तक मेघा भगत थे जो काशी के कतुआपुर मुहल्ले में स्थित फुटहे हनुमान के निकट के निवासी माने जाते हैं।
एक बार पुरुषोत्तम रामचंद्र जी ने इन्हें स्वप्न में दर्शन देकर लीला करने का आदेश दिया ताकि भक्त जनों को भगवान् के चाक्षुष दर्शन हो सकें। इससे सत्प्रेरणा पाकर इन्होंने रामलीला संपन्न कराई। तत्परिणामस्वरूप ठीक भरत मिलाप के मंगल अवसर पर आराध्य देव ने अपनी झलक देकर इनकी कामना पूर्ण की। कुछ लोगों के मतानुसार रामलीला की अभिनय परंपरा के प्रतिष्ठापक गोस्वामी तुलसीदास हैं, इन्होंने हिंदी में जन मनोरंजनकारी नाटकों का अभाव पाकर इसका श्रीगणेश किया। इनकी प्रेरणा से अयोध्या और काशी के तुलसी घाट पर प्रथम बार रामलीला हुई थी।
रामलीला भारत में परम्परागत रूप से भगवान राम के चरित्र पर आधारित नाटक है। जिसका देश में अलग-अलग तरीकों और अलग-अलग भाषाओं में मंचन किया जाता है। रामलीला का मंचन विजयादशमी या दशहरा उत्सव पर किया जाता है। वैसे तो मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के प्रभावशाली चरित्र पर कई भाषाओं में ग्रंथ लिखे गए हैं। लेकिन दो ग्रंथ प्रमुख हैं। जिनमें पहला ग्रंथ महर्षि वाल्मीकि द्वारा ‘रामायण’ जिसमें 24 हजार श्लोक, 500 उपखण्ड, तथा सात कांड है और दूसरा ग्रंथ गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित है जिसका नाम ‘श्री रामचरित मानस’ है, जिसमें 9,388 चौपाइयां, 1,172 दोहे और 108 छंद हैं। महर्षि वाल्मीकि द्वारा लिखी गई ‘रामायण’ तुलसीदास द्वारा रचित ‘श्री रामचरित मानस’ से पुरानी है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
रामलीला उत्तरी भारत में परम्परागत रूप से खेला जाने वाला राम के चरित पर आधारित नाटक है। यह प्रायः विजयादशमी के अवसर पर खेला जाता है। दशहरा उत्सव में रामलीला भी महत्वपूर्ण है। रामलीला में राम, सीता और लक्ष्मण की जीवन का वृत्तांत का वर्णन किया जाता है। रामलीला नाटक का मंचन देश के विभिन्न क्षेत्रों में होता है। यह देश में अलग-अलग तरीक़े से मनाया जाता है। बंगाल और मध्य भारत के अलावा दशहरा पर्व देश के अन्य राज्यों में क्षेत्रीय विषमता के बावजूद एक समान उत्साह और शौक़ से मनाया जाता है।
राम की कथा को नाटक के रूप में मंच पर प्रदर्शित करने वाली रामलीला भी ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की तर्ज़ पर वास्तव में कितनी विविध शैलियों वाली है, इसका खुलासा इन्दुजा अवस्थी ने अपने शोध-प्रबंध ‘रामलीला : परंपरा और शैलियाँ’ में बड़े विस्तार से किया है। इंदुजा अवस्थी के इस शोध प्रबंध की विशेषता यह है कि यह शोध पुस्तकालयों में बैठकर न लिखा जाकर विषय के अनुरूप (रामलीला) मैदानों में घूम-घूम कर लिखा गया है। रामकथा तो ख्यात कथा है, किंतु जिस प्रकार वह भारत भर की विभिन्न भाषाओं में अभिव्यक्त हुई है तो उस भाषा, उस स्थान और उस समाज की कुछ निजी विशिष्टताएँ भी उसमें अनायास ही समाहित हो गई हैं – रंगनाथ रामायण और कृतिवास या भावार्थ रामायण और असमिया रामायण की मूल कथा एक होते हुए भी अपने-अपने भाषा-भाषी समाज की ‘रामकथाएँ’ बन गई हैं।
समूचे उत्तर भारत में आज रामलीला का जो स्वरूप विकसित हुआ है उसके जनक गोस्वामी तुलसीदास ही माने जाते हैं, और यह भी सच है कि इन सभी रामलीलाओं में रामचरितमानस का गायन, उसके संवाद और प्रसंगों की एक तरह से प्रमुखता रहती है। बाबू श्यामसुंदर दास हों, कुँवर चंद्रप्रकाश सिंह हों या फिर आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र सभी की यह मान्यता है कि रामलीला के वर्तमान स्वरूप के उद्घाटक, प्रवर्तक और प्रसारक महात्मा तुलसीदास हैं। किंतु यह भी सच नहीं है कि तुलसी के पूर्व रामलीला थी ही नहीं, हाँ यह अवश्य है कि गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस के पश्चात् फिर रामलीलाओं का आधार यही रामचरितमानस हो गया।
Yeh hai ramleela manchan ka itihas