हिन्दू संस्कृति में पीपल के वृक्ष का महत्व, क्यूं नारायण ने पीपल की तुलना स्वयं से की है
Pipal tree: भारतीय संस्कृति में पीपल को देववृक्ष कहा जाता है। इसके सात्विक स्पर्श मात्र से अन्त: चेतना पुलकित और प्रफुल्लित हो उठती है। इतना ही नहीं स्कन्द पुराण में पीपल के पेड़ों में त्रिदेव का वास माना गया है। कहते हैं पीपल के जड़ में ब्रह्मा, तने में विष्णु और ऊपरी भाग में भगवान शंकर का निवास करते हैं। इसलिए तो चाहे वह मंदिर का प्रांगण हो या गांव के चौराहों का चबूतरा, सब जगह की यादों में पीपल की छांव का जिक्र जरूर होता है।
सनातन में पीपल की स्थिति-
सनातन काल से नदियों के किनारे पीपल के पेड़ों का संबंध ज्ञान और बुद्धि से रहा है। इसलिए तो इसकी छाव में बैठकर हमारे ऋषि-मुनियों तथा स्वयं बुद्ध ने ज्ञान की प्राप्ति की थी। बड़े-बुजुर्गों का मानना है कि पीपल के पेड़ के नीचे का वायुमंडल मन को शांत और चित्त को स्थिर करने में सहायक होता है। जिसका बेहतरीन उदाहरण हमारे पुरातन गुरूकुल परंपरा में मिलता रहा है। संस्कृति से जुड़ी पुस्तकों में स्पष्ट है कि लगातार पीपल के पूजन से मनुष्य के शरीर के आभामंडल का शोधन होता है। पीपल के वृक्ष की विशेषता आप इस चीज से भी समझ सकते हैं कि, रावण ने भी इसकी महत्ता को जानकर लंका में पीपल के वृक्ष लगवा रखे थे।
इतिहास को आधुनिक लिखित समय में देखेंगे तो पता चलेगा कि सम्राट अशोक ने भी असंख्य संख्या में पीपल के पेड़, सड़क के दोनों ओर लगवा रखे थे। सड़क के किनारे यह ना सिर्फ वायु को शुद्ध करती है बल्कि राहगीरों को थकान मिटाने का आश्रय भी प्रदान करती थी। भारत के सुदूर ग्रामीण परिवेश में आपको आज भी घने पीपल के नीचे मटके में पीने को पानी और सुस्ताने के लिए मचान (बांस आदि से बने बेंचनुमा आकृति) मिल जाएंगे।
नारायण ने पीपल के पेड़ की तुलना स्वयं से की है-
भगवान कृष्ण कहते हैं कि समस्त वृक्षों में मैं पीपल का वक्ष हूं। स्वयं भगवान से पीपल की उपमा से आप इसके दिव्यत्व को समझ सकते हैं। शास्त्रों में इसके पूजन विधि को काफी विस्तार में बताया गया है। इसके बारे में कहा जाता है कि पीपल का वृक्ष लगाने वाले की वंश परंपरा कभी नष्ट नहीं होती। प्रसिद्ध ग्रंथ अश्वत्थोपासना में महर्षि शौनक ने पीपल की महिमा के बारे में बताया है। अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद में पीपल के औषधीय गुणों का अनेक असाध्य रोगों में उपयोग वर्णित है। क्या आपको पता है कि यज्ञ में उपयोग की जाने वाले “उपभृत पात्र” पीपल की लकड़ी से ही बनाए जाते हैं। यज्ञ में अग्नि प्रज्वलित करने के लिए ऋषिगण, पीपल और शमी की लकड़ी की रगड़ का उपयोग किया करते थे। ग्रामीण संस्कृत में आज भी पीपल की नई कोपलों के जीवनदायी गुणों का सेवन कर उम्र के अंतिम पड़ाव में भी सेहतमंद बने रहते हैं।
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