पत्तलों पर भोजन परोसने की भारतीय परंपरा…एक झलक
Serving Food on Natural Leaves: भारत में प्राचीन समय में जब मनुष्यों ने धातु की खोज नहीं की थी तब वह खाना खाने के लिए प्रकृति पर निर्भर था। प्रकृति में उपलब्ध बहुतायत संख्या में पेड़ और उनके पत्तों को थाल के रूप में उपयोग में लाने की परंपरा काफी पुरानी है। समय का पहिया घूमता गया और हम मनुष्यों ने तांबा, कांसा, सोना, चांदी, एल्यूमिनियम और स्टील के बर्तनों में खाना पकाना भी शुरू कर दिया और परोस कर खाने भी लगे। लेकिन आज भी भारत के सांस्कृतिक इतिहास की थाल यानी कि पत्तों में खाने की परंपरा, कम ही सही लेकिन बरकरार है। वैसे भी आयुर्वेद में पत्तों में खाना खाने के कई लाभ बताए जाते हैं। प्राचीन समय में पत्तलों में खाना खाना सिर्फ किफायती ही नहीं था बल्कि स्वास्थयवर्द्धक भी था। भारत के दक्षिणी हिस्सों में तथा उत्तर के पहाड़ी इलाकों में आज भी कई जगह आपको खाना पत्तलों में ही परोसा मिलेगा।
‘’दक्षिण भारत’’ के कई हिस्सों में आज भी भोजन को ‘’केले के पत्तों’’ पर परोसने की परंपरा बरकरार है। ‘शादी-ब्याह’ हो या ‘धार्मिक आयोजन’ आपको खाना केले के पत्तों पर ही परोसा जाएगा। वहां तो रेस्टोरेंट में भी यह चलन काफी आम है कि खाना केले के पत्ते पर ही परोसा जाए। केले के पत्ते पर परोसा गया भोजन दक्षिण भारत की पहचान बन गई है। हालांकि सिर्फ दक्षिण भारत में ही केले के पत्तों पर भोजन को परोसने की व्यवस्था नहीं है बल्कि देश के अन्य भागों में भी यह देखने को मिल जाता है। आज दुनिया में ‘’सिनथेटिक’’ पत्तल ने प्रकृति को काफी नुकसान पहुंचाया है। ऐसे में केले के ये पत्ते काफी ‘’इकोफ्रेनडली’’ होते हैं। आसानी से प्रकृति की चीजों को वापस से अपने में समा लेना, धरती की अपनी एक खास विशेषताओं में एक है। प्रकृति द्वारा प्रदत्त यह पत्तल ‘’एन्टीमाईक्रोबियल’’ भी होता है यानी कि खाने को शुद्ध करने में भी इसकी अपनी भूमिका है। केले के पत्ते पर परोसा गया भोजन इसे बेहतर ढ़ंग से पचाने लायक भी बनाता है। इसलिए तो शायद केले पर भोजन परोसना इतना शुद्ध माना जाता है।
केले के पत्तों के अलावा हमारे समाज में कई और भी पत्तों का इस्तेमाल भोजन को परोसने के लिए किया जाता है जिनमें से एक है ‘’पलाश का पत्ता’’। ‘’पलाश के पत्ते’’ को आज भी कई धार्मिक आयोजन में प्रसाद के चढ़ावे और वितरण के लिए इस्तेमाल किया जाता है। आज भी कई समुदाय पलाश के पत्ते के बिनने का काम करते हैं। इन्हीं प्लास के पत्तों का उपयोग ‘’पत्रावली’’ के लिए किया जाता रहा है। ये पत्ते ना सिर्फ भोजन को शुद्ध करते हैं बल्कि इन्हें पचाने और प्रकृति में इसके विघटन को आसान बनाते हैं।
केले और पलाश के अलावे एक और पत्ते की कटोरियां तो आपने देखी ही होगी । इनके पत्तों की कठोरता इन्हें इनके बहुतायत उपयोग में आसान बनाती है। जी हां यह है साल के पत्तों की खासियत। साल की लकड़ी से फर्नीचर तो बनते ही हैं इनके पत्तों से दोना( कटोरियां) भी बनाई जाती है। मंदिरों में प्रसाद के लिए अमूमन जिन पत्तल की कटोरियों को आप देखते हैं वह साल की ही होती है, खासकर बिहार, झारखंड और बंगाल के इलाकों में।
पत्तों में भोजन को परोसने की परंपरा ने भारतीय को पूरी दुनिया से अलग पहचान दी है और पूरी दुनिया को जीवन और प्रकृति के बीच के संतुलन को भी बताया है कि ‘’धरती से’’ और ‘’धरती का’’ ही होना, जीवन है। जीवन की इसी कड़ी में प्रकृति द्वारा दिए गए एक और पत्ते के बारे में आपको बताऊं तो आपको शायद आश्चर्य हो क्योंकि इसके फूल के बारे में आपने तो खूब सुना होगा लेकिन शायद ही आपको पता हो कि इसके पत्तों में भी खाने को परोसने की हमारी संस्कृति रही है। जी हां मैं बात कर रहा हूं कमल के पत्तों की । कमल के फूल को माता लक्ष्मी के पूजन में उपयोग किया जाता है लेकिन आपको बताऊं कि कमल के पत्तों में एक खासियत है कि यह खुद को समय के साथ साफ करता रहता है। इसकी यही खासियत के कारण इसके ऊपर कोई भी जीवाणु या विषाणु ठहर नहीं पाता जिसके वजह से यह हमारे भोजन के पात्र के रूप में भी उपयोग होता रहा है।
भारत में सदियों से चले आ रहे पत्तलों के इस चलन को बाजार के नए अ-जैविक उत्पादों ने कम कर दिया है। लेकिन इसका चलन आपको भारत के ग्रामीण स्तर पर आज भी आराम से दिख जाएगा। प्रकृति ने अपने इन पत्तों में पॉलीफेनोल्स नाम की एक प्राकृतिक एंटीऑक्सिडेंट को पैदा किया है जिसके कारण यह हमारे भोजन की शुद्धता को बरकरार रखने के साथ-साथ उसे इस लायक भी बना देता है कि हमारा शरीर उसे आराम से पचा ले।
जरूरत बस इतनी है कि आज के इस बाजारू व्यवस्था में हम अपनी संस्कृति और जीवनशैली को सम्मान दें और फिर से दैनिक जीवन में इसे अपनाने की पहल करें। सदियों से चली आ रही ये परंपराएं सिर्फ त्यौहार का हिस्सा ना बन कर रह जाएं यह भी ध्यान रखने की जरूरत है आज के समय में ।