मेरी तो सौतन रही धर्मयुग : पुष्पा भारती

धर्मयुग यानी हिंदी पत्रकारीय जगत का एक मानक। जिसमें छपना और उसे पढना दोनों ही उस कालखण्ड के लिए खास रहा। ऐसे में यदि कोई कहे कि धर्मयुग तो सौतन रही, तो कुछ पल के लिए सोचना होगा। हां, हम बात कर रहे हैं धर्मयुग के संपादक रहे धर्मवीर भारती की पत्नी पुष्पा भारती की। एक पत्रकार, एक साहित्यकार पुष्पा भारती ने जब बोलना शुरू किया, तो परत-दर-परत खोलतीं गईं। हम बस सुनते रहे।
हाल ही में हिंदी साहित्य और पत्रकारीय जगत की सशक्त हस्ताक्षर पुष्पा भारती दिल्ली प्रवास पर थी। उसी दरम्यान उनसे लंबी बातचीत हुई। हिंदी साहित्य के साथ-साथ पत्रकारीय जगत में कई महिलाओं ने सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई है, जिनमें पुष्पा भारती बेहद अहम हैं। इनकी प्रकाशित कृतियां हैं – ‘आधुनिक साहित्य बोध’, ‘रोमांचक सत्य कथाएँ’, ‘शुभागत’, ‘रोचक राजनीति’, ‘हिन्दी के तीन उपन्यास’, ‘ढाई आखर प्रेम के’, ‘अमिताभ आख्यान’, ‘सरस संवाद’ और ‘सफर सुहाने’।
पुष्पा जी को रमा पुरस्कार, स्वजन सम्मान, भारती गौरव पुरस्कार, आशीर्वाद सारस्वत सम्मान और उत्तर हिंदी शिरोमणी सम्मान से विभूषित भी किया गया है। पेश है उस बातचीत के प्रमुख अंश:
सवाल – आपने साहित्य और पत्रकारिकता को करीब से देखा है। इन दिनों कई तरह की विमर्श और दिवस का बोलबाला है। इस पर क्या कहेंगी?
जवाब – मेरे दिमाग में इनका कोई खास महत्व नहीं है। यह एक गैरजरूरी चीज है। विमर्श नाम पर हमारे यहां की महिलाएं खूब लेखन करती हैं। आप उन्हें पढ़िए उनमें कितने विरोधाभास हैं। जो औरतें विमर्श-विमर्श चिल्लाती हैं, उनका स्वयं का जीवन देखिए। उनका जीवन को देखिए कितना अलग होता है। वे स्वयं विमर्श को समझ नहीं पातीं। मेरे हिसाब से महिला विमर्श कोई जरूरी नहीं है। महिला दिवस में से विमर्श अलग कर देना चाहिए। महिला दिवस को महिला की गरिमा के साथ निभाओ। साल के हर दिन महिला होती है। पुरुष विमर्श की जरूरत हैै।
महिला दिवस ही क्या अब तो हर दिन रस्मी दिन बनकर रह गया है। आप हिंदी दिवस को ही लें। मैं हमेशा कहा करती हूं कि हिंदी दिवस अब हिंदी का श्राद्ध दिन होता है। क्योंकि यह दिन श्राद्ध पक्ष में आता है। इस दिन के लिए सरकार हर दफ्तर, हर सोसायटी को पैसा देती है। उन्हें हिंदी के नाम पर पैसा मिल जाता है। थोड़ा-बहुत हिंदी दिवस के नाम पर खर्च होता है। लेकिन इसका क्या औचित्य। असल में करने वाले और हिंदी के महिमागान सुनने वाले कोई मतलब होता है। सिर्फ खानापूर्ति हो जाती है।
सवाल – आज कई लोग आपसे धर्मवीर भारती के बारे में जानना चाहते होंगे। आखिर उनसे आपकी मुलाकात कब हुई?
जवाब – बीए करते हुए जब इलाहबाद यूनिवर्सिटी में गई, तो पता चला कि अंग्रेजी बच्चन साहब पढ़ाते हैं। फिराक साहब अंग्रेजी पढ़ाते हैं। और पता चला कि धर्मवीर भारती हिंदी पढ़ाते हैं। ये जानकर हम सहेलियां उछल पड़ीं। उस जमाने में धर्मवीर भारती हर स्टूडेंट के लिए महाभारत, रामायण या गीता हो गए थे। चाहे उनकी लिखी गुनाहों का देवता हो या अंधा युग। पता चला कि धर्मवीर भारती ब्वॅायज डिपार्टमेंट को पढ़ाते हैं। ये जानकार काफी उदास हुए। पर उन सभी को देखने का मन हुआ। हम लोग पढ़ाई के घंटे बंक करके सभी को देखने जाते थे। सब सेहलियों ने पता कर लिया कि कौन कितने बजे आते हैं। बच्चन जी गाड़ी से आते थे। कब आए, कब गए पता ही नहीं चलता था। उस जमाने में लोगों के लिए गुनाहों के देवता महाभारत, रामायण थी। धरमवीर भारती साइकल से कॅालेज आते थे और स्टाफरूम की दीवार के साथ साइकल पार्क करके तला लगाते थे। ऐसे में हमें काफी समय मिल गया उन्हें देखने को। धर्मवीर भारती को देखकर हम ज्यादा इम्प्रेस नहीं हुए थे। क्योंकि काफी दुबले-पतले, लंबे, साधारण चेहरा। एक दिन देखा तो हैरान रह गए, जब वो स्टाफरूम से क्लासरूम में जा रहे थे। तब उनकी जो चाल थी, हम तो फिदा हो गए। चाल से ही वो इंसान ब्रिलिएंट लग रहा था।
सवाल – हमने धर्मयुग के चंद अंक ही पढे हैं। हमारी पीढी के साथ यह दिक्कत है। आपने तो पूरी विरासत देखी है। आप धर्मयुग को कैसे देखती हैं ?
जवाब – सच कहूं तो, धर्मयुग मेरे लिए सौतन रही। जब मैं विवाह के बाद कलकता से मुंबई आईं, तो भारती जी घर में भी धर्मयुग के साथ ही चिपके होते। धर्मयुग में क्या छपना है, कितना छपना है, किसका छपना है, यही सोचते रहते। नाश्ता कर रहे हों या चाय पी रहे हों, उनके हाथ में धर्मयुग और उससे जुडी पन्ने ही होते। इसलिए मैं तो धर्मयुग को अपना सौतन मानती रही।
सवाल – आप का लेख भी धर्मयुग में प्रकाशित होता रहा ?
जवाब – बिलकुल। शुरुआत में मैंने अलग नाम से लिखा। क्योंकि, लोगों को यह न लगे कि भारती जी की पत्नी है, इसलिए छप रही है। असल में, भारती जी लेखों से कोई समझौता नहीं करते। बाद में मैंने पुष्पा भारती के नाम से धर्मयुग के लिए कई इंटरव्यू किए। मैं आपको बता दूं कि सोनिया गांधी, जो उस प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पत्नी रहीं, उनका सबसे पहला इंटरव्यू हिंदी में मैंने ही किया। वो एक अलग तरह का इंटरव्यू था। आज के लोगों को वह पढना चाहिए।
सवाल – साहित्य के प्रति इतना गहरा लगाव क्या घर के साहित्यिक माहौल की देन थी ?
जवाब – हाँ, पिताजी ने बचपन में जो सिखाया- पढ़ाया उसने साहित्य की तरफ मेरी रुचि जगा दी। मैंने सारे साहित्यकारों को पढ़ना शुरु कर दिया। उस जमाने में सभी स्कूल-कॉलेज अपने यहाँ कवि दरबार लगाते थे। उसमें सभी विद्यार्थी कवियों की कवितायें सुनाते थे और अपने प्रिय कवि का वेश भी बनाते थे। मैं भी कवि दरबार में बच्चन जी जैसा बनाकर जाने लगी। उन दिनों बच्चन जी के बाल बहुत घुंघराले होते थे तो मैं भी अपने बालों को घुँघराले करके कवि दरबार में जाती और लोग खूब वाहवाही भी देते। हालाँकि मेरे पास बच्चन जी जैसा कोट नहीं था तो मैंने अम्मा से कहा कि मुझे बच्चन जी जैसा कोट सिलवा दो। उन्होंने कहा कि इतने पैसे कहाँ से आयेंगे और कोट सिलवाने से मना कर दिया। मैं बच्चन जी की नकल करते हुये इतनी प्रसिद्ध हो गई कि दूसरे कॉलेज वाले भी बुलाने लगे। वहाँ कविता प्रतियोगिताओं में पुरस्कार स्वरुप जीते गये पैसे जोड़ कर माँ को दिये और कहा कि अब कोट सिलवा दो। माँ ने कोट बनवाया और मैं कवि दरबार में हरिवंश राय बच्चन की तरह कोट पहनकर जाने लगी। बच्चन जी तबसे मेरे इतने प्रिय थे। तब मुझे ये मालूम नहीं था कि जिस कवि की रचनायें मैं सुनाती हूँ एक दिन उनकी सबसे लाड़ली बेटी बन जाऊँगी।
सवाल – हरिवंश राय बच्चन आपके सबसे प्रिय कवि थे, उनसे आपकी पहली मुलाकात कब हुई?
जवाब – मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में बीए में पढ़ती थी। जब मैं यूनिवर्सिटी में एडमिशन लेने गई तो लड़कियाँ आपस में बात कर रही थीं कि यहाँ हिन्दी विभाग में धर्मवीर भारती पढ़ाते हैं और इंग्लिश विभाग में हरिवंश राय बच्चन। मैं सुनकर बहुत खुश हुई कि बच्चन जी यहाँ पढ़ाते हैं। तब फिराक गोरखपुरी भी वहाँ इंग्लिश डिपार्टमेंट में पढ़ाते थे। मैं तब तक भारती जी का गुनाहों का देवता आदि भी पढ़ चुकी थी। लेकिन जब मैं पढ़ने पहुँची तो पता चला कि ये लोग लड़कों को पढ़ाते हैं। लड़कियों के विभाग में आते ही नहीं। मुझे बहुत दुख हुआ लेकिन मैं निराश नही हुई। अपनी तरह की साहित्यिक मिजाज वाली कुछ सहेलियों को मिलाया और बच्चन जी से मिलने के मिशन में लग गई। हमलोग एडमिशन होते हीं क्लासेज बंक करने लगे और हिन्दी डिपार्टमेंट और इंग्लिश डिपार्टमेंट के चक्कर काटने लगे ताकी ये महान साहित्यकार दिख जायें। धर्मवीर भारती जी तो कुछ दिन की मेहनत के बाद हिन्दी डिपार्टमेंट में दिखाई दे गये। लेकिन बच्चन जी नहीं दिखे। एक दिन पता चला कि बच्चन जी फलां टाइम में आने वाले हैं हमलोगों ने तय किया कि आज कुछ भी हो जाये उनको देखना ही है। बच्चन जी तय समय पर आये, कार से उतरे और फटाफट डिपार्टमेंट में घुस गये। हमलोग फिर ठीक से नहीं देख पाये तो बड़ी वाली आलपीनें लाकर उनकी कार को पंक्चर कर दिया और ये सोचकर खुश होने लगे कि अब तो बच्चन जी जरूर दिखेंगे, लेकिन जब बच्चन जी आये तो पंक्चर देखकर वो फिर फटाफट अपने डिपार्टमेंट में घुस गये और उनकी पंक्चर कार कोई और ठीक कराने ले गया। निराश होकर हमलोग उनकी कुछ झलक देख लौट आये थे। इस घटना के करीब चार-पाँच महीने बाद हिन्दी विभाग में एक कार्यक्रम होने वाला था जिसमें स्वलिखित कविताओं का पाठ करना था। मुझे पता चला कि इस प्रतियोगिता को जज करने के लिये हरिवंश राय बच्चन आने वाले हैं तो मैंने निश्चय किया कि इस प्रतियोगिता में अवश्य भाग लूँगी। मैने जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला आदि तमाम बड़े कवियों की किताबें इकट्ठा की, सबकी कवितायें पढ़ना शुरू किया, कविताओं के अच्छे-अच्छे भाव उठाकर मैंने अपनी कविता तैयार कर ली, जोड़-तोड़ से कविता बहुत अच्छी बन पड़ी। कार्यक्रम में मैंने सुनाया। बच्चन जी आये तो हमलोग की साध पूरी हो गई। हमलोग उन्हें लगातार देखे जा रहे थे। कार्यक्रम के बाद बच्चन जी ने खड़े होकर रिजल्ट घोषित किया, फिर एक छोटा सा भाषण दिया और उसमें उन्होंने कहा कि मैं बड़ा प्रसन्न हूँ कि इतनी छोटी उम्र में आपलोगों ने इतना अच्छा लिखा, आपलोगों के पास इतना ज्ञान, इतनी कोमलता, इतना भाव, भाषा में इतनी रवानगी है, मैं आपलोगों को साधुवाद देता हूँ। फिर मेरी तरफ देख कर कहने लगे कि अंत में आपलोगों को एक सलाह देना चाहूँगा कि उधार की ली हुई भाषा और उधार के लिये हुये भाव बहुत दिनों तक जीवन में साथ नहीं देते…। मैं समझ गई कि मेरी चोरी पकड़ी गई तब मैंने उनके सामने ही अपने कानों को हाथ लगाया और मन ही मन कहा कि अब कविता कभी नहीं लिखूँगी। इस तरह बच्चन जी से मेरी पहली मुलाकात हुई।
सवाल – अमूनन पढ़ने के प्रति रूझान घर या संगत से आता है। क्या आपमें साहित्य के संस्कार बीज का रोपण का भी यही कारण रहा? आप कब से लिख रही है?
जवाब – मैं स्कूल-काॅलेज में खूब लिखती थी। वहां की मैगजीनों में। हमारे जमाने में स्वरचित काव्य पाठ हुआ करते थे। मैं उनमें हिस्सा लेती थी। उस वक्त साहित्य हमारे साथ-साथ चलता था। असल में घर में ही साहित्य के बीज मिल गए थे। मेरे पिताजी बहुत विद्वान थे। उन्होंने हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत में एमए किया था। उनका हिंदी से अधिक प्रेम था। पिताजी अध्यापक थे। छुटपन से हमें साहित्य का रस आता था। मेरे पिताजी ने सिखाया था कि साहित्य का असली रस लेना है तो शब्दों के अर्थ नहीं जानाओ। शब्द का मर्म जानों। फिर साहित्य का रस आएगा। मैं मुरादाबाद में पैदा हुई हूं। मैं सुभाष नेशनल काॅलेज, उन्नाव की लाइब्रेरी से बुक ले जाती और तीसरे दिन पढ़कर वापिस कर देती। पिताजी ने सिखाया था कि डिबेट जीतने के लिए विषय के हित में नहीं बोलो।
सवाल – अपनी साहित्य साधना के बारे में कुछ बताएं। आज के युवाओं को क्या कहना चाहेंगी?
जवाब – मैंने एक पुस्तक में लिखा है कि हिंदी पाठकों के लिए साहित्य कोई रुचि का विषय नहीं। हिंदी पाठक खरीद कर पत्र-पत्रिका नहीं पढ़ता। वह सस्ती कुरुचिपूर्ण साम्रगी की तलाश में रहता है। हिंदी में पाठक वर्ग है ही नहीं। हिंदी में सक्रिय व स्थिर पाठक वर्ग की संख्या बहुत कम है। हिंदी पाठक वर्ग को लेकर वर्ष 1960 में कुछ ऐसी ही अवधारणाएं थीं। हिंदी के पाठकों की गिनती गंभीर श्रेणी में नहीं की जाती थी। इन तमाम अवधारणाओं के बावजूद एक शख्स ने प्रण लिया कि वह इस भ्रम को दूर करेंगे। वह साबित कर देंगे कि हिंदी में न सिर्फ पाठक-वर्ग है, बल्कि वह बड़ी संख्या में है। उनका मानना था कि आप दो कदम आगे बढ़िए तो वह चार कदम आगे बढ़ कर स्वागत करने को तत्पर हैं, हां मगर आपको उन तक पहुंचने की पगडंडियां ढूंढ़ निकालनी होगी। उनका मानना था कि जो लोग हिंदी के पाठक को गिरी निगाह से देखते हैं, सिर्फ वही इस मिथ पर विश्वास जमाये रखना चाहते हैं और इसका निष्ठापूर्वक प्रचार करते हैं। कुछ ऐसी ही थी डॉ धर्मवीर भारती की साहित्य साधना। मुझे यह गौरव हासिल है कि मैं उनके इस पथ की पाथेय रही हूं। एक पत्रकार की जिम्मेदारी पूरी करने के साथ-साथ उन्होंने आम लोगों को भी साहित्य से जोड़ने का कदम उठाया। उन्होंने ऐसे साहित्य का सृजन करना प्रारंभ किया, जो स्तरीय होने के साथ-साथ सरल भी हो और सामान्य भी ताकि वे आम लोगों की पहुंच बन चके। इसे एक व्यक्ति की निःस्वार्थ साधना ही कह सकते हैं कि उन्होंने लोगों को यह तर्क समझाने की कोशिश की कि यह तो हिंदी पत्रकारिता व साहित्य का ही काम है कि उस पाठक के मर्म तक पहुंचने के सही रास्ते खोज निकाले। आज का युवा या कोई भी यदि साहित्य का रसास्वादन करना चाहता है, तो उसे शब्द के मर्म को समझना होगा। बिना इसके रस मिलेगा ही नहीं।
सवाल – सरकार बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ की नीति जनता अपनाए इसके लिए पुरजोर कोशिश करती है। आखिर समृद्ध भारत की नींव हैं बेटियां। बेटियां पढ़ी-लिखी होंगी, तो देश तरक्की करेगा। आपके जमाने लड़कियां क्या पढ़ती थीं? उस समय क्या स्थिति थी?
जवाब – पढ़ती थीं, लेकिन कम। मेरे काॅलेज में बहुत कम लड़कियां थीं। बड़ा विचित्र लगता था। क्लास में ऐसी सीट पर बैठती थी जहां टीचर का चेहरा सामने की तरफ हो। जब मैं इलाहबाद गई, तब पता चला कि यहां लड़कियां अलग पढ़ती हैं और लड़के अलग। एम.ए. में लड़कियां कम होती थीें तो को-एड काॅलेज में जाते थे। बचपन से ही मेरा दिमाग ट्रेंड कर दिया गया था हिंदी साहित्य का रस लेने को। हिंदी मे ंतो काफी तेज थी, लेकिन अन्य सब्जेक्ट्स में उतनी तेज नहीं थी।
प्रस्तुति: सुभाष चंद्र
Meri to saiutan rahi dharamyug
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