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ग्रामीण सोच, परिवेश को परदे पर उतारती लापतागंज

ग्रामीण सोच, परिवेश को परदे पर उतारती लापतागंज
  • PublishedJune , 2019

टीम हिन्दी

भारत गांवों में बसता है. गांव यानी समाज. सामाजिक सरोकार से सराबोर वहां के लोग. शहरों-महानगरों वाली समृद्धि नहीं हो वहां, लेकिन मानवीय संवेदना हरेक के पास है. संवेदनाओं को हंसी के पुट के साथ करोड़ों लोगों तक पहुंचाया है शरद जोशी ने. शरद जोशी यानी हिंदी के वो कलम के जादूगर, जिन्होंने सामाजिक विसंगतियों का चित्रण बड़े ही मनोयोग से किया है और व्यंग्य विधा को नया आयाम दिया है. हम बात कर रहे हैं लापतागंज की.

हां, वही लापतागंज, जिन्होंने आप लोगों ने सोनी के सब टीवी पर देखा होगा. कुछेक लोगों ने पुस्तक के रूप में पढ़ा होगा. वैसे लोग खुशकिस्मत हैं, जिन्होंने पढ़ा भी और देखा भी. आप सोचिए, कविता लिखी, कोई सुननेवाला नहीं है. नाटक हुआ, भीड़ न थी. पिक्चर लगी, चली नहीं. किताब छपी थी, बिकी नहीं. बहुत ढूँढ़ी मिली नहीं. आई थी, खत्म हो गई. क्या करें, कुछ होता नहीं है. कुर्सी पर बैठा, मगर ऊंघ रहा है. फाइल पड़ी है, दस्तखत नहीं हो रहे.

असल में, ये बातें हमारे आस-पास होती है. समाज में घटती है, जिसे हम लोग प्रायः देखते हैं. ऐसे ही बातों को कथानक और पात्रों के माध्यम से एक सूत्र में पिरोने का काम किया शरद जोशी ने.

बता दें कि शरद जोशी का जन्म 21 मई, 1931 को मध्य प्रदेश के उज्जैन में हुआ था. लेखन में इनकी रुचि शुरू से ही थी. उन्होंने मध्यप्रदेश सरकार के सूचना एवं प्रकाशन विभाग में काम किया, लेकिन बाद में सरकारी नौकरी छोड़कर पूरा समय लेखन को दिया. जोशी इंदौर में ही रहकर रेडियो और समाचारपत्रों के लिए लिखने लगे. उन्होंने कई कहानियां भी लिखीं, लेकिन व्यंग्यकार के रूप में ही स्थापित हुए. शरद जोशी भारत के पहले व्यंग्यकार थे, जिन्होंने सन् 1968 में पहली बार मुंबई में चकल्लस के मंच पर, जहां हास्य कविताएं पढ़ी जाती थीं, गद्य पढ़ा और हास्य-व्यंग्य में अपना लोहा मनवाया. उन्होंने अपने वक्त की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विसंगतियों को बड़ी पैनी निगाह से देखा और उन पर चुटीले अंदाज में लिखा, इसलिए अधिक लोकप्रिय भी हुए.

आपको बता दें कि लापतागंज सोनी के सब टीवी पर आने वाला एक धारावाहिक रहा है. यह 26 अक्टूबर 2009 से 15 अगस्त 2014 तक चला। पहले यह शरद जोशी के कहानी से लिया गया था, इस कारण इसका नाम लापतागंज – शरद जोशी की कहानियों का पता रखा गया था. लापतागंज भारत के एक ऐसे गांव की कहानी है, जिसे सरकार और प्रशासन ने लंबे समय से भुला दिया है. इस गांव में मुख्य किरदार मुकंदीलाल गुप्ता अपनी पत्नी इंदुमती और बेटे चुकंडी के साथ रहते हैं. हर समय मुस्कराते रहना उनकी आदत है. मिशरी बुआ लापतागंज की व्यथा की प्रतीक हैं, जो अपनी गूंगी बेटी सुरीली के साथ रहती हैं. बिजी पांडेय जो हर समय व्यस्त रहते हैं, इनका असली नाम पप्पू पांडेय है.

कहानी में कछुआ चाचा भी हैं. उन्हें किसी बात से कोई असर नहीं होता इसलिए इनका नाम गांव वालों ने कछुआ चाचा रख दिया है. लापतागंज एक छोटा-सा काल्पनिक शहर है, जो शरद जोशी की रचनाओं से प्रेरित है. उन्होंने हास्य-व्यंग्य के द्वारा समाज की सच्चाइयों को उजागर किया है.

हालांकि, इसके दूसरे प्रसारण में कहानी अलग होने के कारण इसका नाम लापतागंज – एक बार फिर रखा गया। यह दोबारा 10 जून 2013 से शूरु हुआ था. इसकी कहानीएक छोटे से गांव लापतागंज की है. जहां नल, बिजली आदि सुविधाओं का पता नहीं होता है. इसमें जो कहानी दिखाए गए, वह हमारी और आपकी प्रति दिन की कहानी है. जो पात्र हैं, वह आपको अपने आस-पास ही मिल जाएंगे।

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टीम द हिन्दी

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