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मोबाइल की आभासी दुनिया में मलखम्ब जैसे खेल कहीं लुप्त न हो जाएं!

मोबाइल की आभासी दुनिया में मलखम्ब जैसे खेल कहीं लुप्त न हो जाएं!
  • PublishedMarch , 2020

वह भी क्या दिन थे जब शाम होते ही मोहल्लों की छोटी छोटी सडकें शोर से गूंजती रहती थी। ऐसा कोई पार्क नहीं होता था जहाँ बच्चों की टोलियाँ नहीं दिखती थी! खोखो, ताड़म ताड़ी, छिपम-छिपाई, गुल्लीडंडा, बाघ-बकरी, रस्सीकूद, पिट्ठू, लंगड़ी टांग, कंचे, लट्टू क्या नहीं खेलते थे बच्चे! रोज नए खेल और खेलों के आनंद में डूबे बच्चों के शोर से मोहल्ले आबाद हो जाते थे। मोहल्ले आज भी वही है, इन महोल्लों में बच्चे भी हैं लेकिन वह कोलाहल गायब है। मोबाइल की आभासी दुनिया मोहल्लों की रौनक खा गयी।

भारत में खेलों की समृद्ध परंपरा रही है। खेल मानव के लिए सदा मनोरंजन का साधन रहे हैं। हम कह सकते हैं कि खेलों का इतिहास मानव के इतिहास के समान्तर आगे बड़ा। लेकिन अफसोस कि कल के मोहल्लों का अल्हड बचपन, आज एयरकंडीशनर के कमरों में सर गड़ाए मोबाइल में पबजी के लेबल पार कर रहा है। आज का बचपन शतरंज नहीं खेलता। न वह यह जानता है कि शतरंज का खेल भारत की ही देन हैं। आज के युवा से मल्लयुद्ध, घुड़दौड़, और मलखम्ब जैसे खेलों की बात करना, करना बेमानी है। भारत में खेल केवल मनोरंजन के साधन नहीं थे। शारीरिक के साथ मानसिक विकास, टीम मनेजमेंट और स्वस्थ शरीर के लिए खेलों का विशेष योगदान था। आज हम बात करते हैं मलखम्ब की…

मलखम्ब -: मलखम्ब को यदि जिमनास्ट की श्रेणी में रखा जाए तो कोई हर्ज नहीं होना चाहिए। क्योंकि जिमनास्ट की कई विधाएँ जमीन पर न हो कर हवा में की जाती हैं। मलखम्ब भी जमीन से 10 फुट ऊंचाई पर लकड़ी के खम्बे पर खेला जाता है। यह भारत का एक पारम्परिक खेल है जिसमें खिलाड़ी लकड़ी के एक खम्भे पर तरह-तरह के करतब दिखाते हैं। यह खम्बा सागवान की लकड़ी से बना हुआ होता है। जिसका कुछ हिस्सा जमीन के नीचे मजबूती से गाड़ा जाता है। गोलाकार आकर में बने इस खम्बे की उंचाई लगभग10 फीट तक होती है। यह खम्बा नीचे से मोटा तथा ऊपर की और पतला होता चला जाता है।

इतिहास एवं खोज:- मलखम्ब का पौराणिक इतिहास भी मिलता है। माना जाता है कि मलखम्ब 7000 साल पुराना खेल है। 12वीं शताब्दी में लिखी चालुक्य सम्राट सोमेश्वर तृतीय द्वारा लिखी मानसोल्लास किताब में मलखम्ब का उल्लेख है। सोमेश्वर तृतीय ने कई संस्कृत ग्रंथों की भी रचना की। लेकिन आधुनिक मलखम्ब का प्रचार प्रसार का श्रेय पेशवा बाजीराव द्वितीय के शासन काल को जाता है। पेशवा के गुरु दादा देवधर ने इस खेल को पूरे भारत में एक नई पहचान दी। दादा देवधर के शिष्य श्री अच्युतानंद स्वामी  ने पूरे भारत में भ्रमण कर अखाड़ों की स्थापना की और उसमें मलखम्ब सिखाने की व्यवस्ता करी।

आज के परिपेक्ष्य में मलखम्ब-: वैसे तो मलखम्ब 20 देशों में फल फूल रहा है लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धा ओलम्पिक ने इसके लिए दरवाजे अभी तक नहीं खोले हैं। टोक्यो ओलम्पिक से मलखम्भ को बड़ी उम्मीदें हैं। मलखम्ब फेडरेशन ऑफ़ इंडिया द्वारा इस खेल को ओलम्पिक में शामिल किये जाने की मांग की है। ओलम्पिक फेडरेशन ने इस खेल के प्रदर्शन के लिए भारत को टोक्यों ओलंपिक में आमंत्रित किया है। छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों के चार बच्चों को उनके उत्तम प्रदर्शन के बाद भारतीय ओलम्पिक दल में शामिल किया है। प्रदर्शन को देखने के बाद ही मलखम्ब के लिए आगे के राह खुलेगी।

मलखम्ब का प्रचार प्रसार-: भारत में मलखम्ब के प्रचार के लिए मध्यप्रदेश का विशेष योगदान है। मप्र की खेल मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया ने 2006 में मलखम्ब को राजकीय खेल का दर्जा दिया। मध्यप्रदेश के ही उज्जैन में 1980 में मलखम्ब फेडरेशन ऑफ इंडिया बनी। भारत के लगभग सभी राज्यों में मलखम्ब की फेडरेशन हैं जो समय समय पर राष्ट्रीय प्रतियोगिताएं आयोजित करती रहती हैं। जरूरत सिर्फ इतनी है कि कैसे भी आभासी दुनिया में खोई हमारी पीढ़ी को एयर कंडीशन वाले कमरों से निकाल कर मैदान तक लाया जाए ताकि 7000 साल पुराने इस जैसे अन्य खेलों को पुनर्जीवित किया जा सके।

Malkham jese khel lupt na hojaye

Written By
टीम द हिन्दी

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