भारत में युवाओं की सक्रिय भागीदारी
टीम हिन्दी
युवा, भूत नहीं होता। युवा, भविष्य और वर्तमान के बीच में झुला भी नहीं झूलता। वर्तमान के लिए भविष्य लुटता हो, तो लुटे। दुनिया उसे अव्यावहारिक, पागल, दीवाना या दुनियादारी से परे कहती हो, तो कहे। युवा, बंधनों और बने-बनाये रास्तों पर चलने की बाघ्यता भी नहीं मानता। वह नये रास्ते बनाता है। इन नये रास्तों को ही बदलाव कहते हैं। इसलिए युवा को बदलाव का वाहक कहा गया है। बदलाव, अवश्यसंभावी है। आप इन्हें स्वीकारें, न स्वीकारें.. ये तो होंगे ही। बदलाव के बगैर ना ही प्रकृति चल सकती है और ना ही समाज।
यौवन तन नहीं, मन की अवस्था है। हां! तन की भिन्न अवस्थाएं, मन की इस अवस्था को प्रभावित जरूर करती हैं। युवा मन बंद खिड़की-दरवाजे वाला मकान नहीं होता। लेकिन जो एक बार ठान लिया; वह करके ही दम लिया। जिसे एक बार मान लिया; उस पर अपना सर्वस्व लुटा दिया। युवा, न करने का बहाना नहीं खोजता।
भारतीय संदर्भ में बात करें, तो हम इन्हे नकरात्मक सामाजिक बदलाव कह सकते हैं। हालांकि ये सब उसकी देन नहीं है, जिसे उम्र की सीमा में बांधकर युवा कहते हैं। संतान की शारीरिक सुंदरता, कैरियर और पैकेज की तारीफ में कसीदे पढ़ने वाले अभिवादकों की उम्र क्या है? भारत में भ्रष्ट आचार के मशहूर आरोपियों की सूची बनाइए। ’’देश और देश की जनता के हितों से मुझे क्या मतलब’’ कहने वाले सांसद कम उम्रदराज नहीं। जूनियर अपराधियों को शामिल करने वाले राजनैतिक दलों में मुखिया तो लगभग सभी सीनियर सिटीजनशिप के आसपास ही हैं। सामाजिक बदलाव को दिशा देने का दायित्व धर्मगुरुओं के अलावा विश्वविद्यालय-मीडिया जैसी संस्थानों की है। इनके अगुवा किस उम्र के हैं ? क्या वे अपने दायित्वों पर खरे हैं?
यदि आप सामूहिक सामुदायिक की जगह व्यक्तिगत का बोलबाला है; आर्थिक व निजी लक्ष्यों के आगे समग्र व सामुदायिक उत्थान के लक्ष्य का आकर्षण फीका पड़ गया है; तो इसका बड़ा कारण फंड लोलुप ’एन जी ओ कल्चर’ है, जिसने सामाजिक स्वयंसेवक निर्माण की आवश्यक प्रक्रिया को रोक कर नौकर और मालिक पैदा करने चालू कर दिए हैं। प्रेरित करने वाले ही अपनी की शुचिता से चूक गए हैं। चुनौती खड़े कर सकने लायक वर्तमान समय के पात्रों में भी प्रतिबद्धता दिखाई नहीं दे रही। तो फिर नकरात्मक बदलावों के लिए हम सिर्फ 15 से 45 की उम्र को दोषी कैसे ठहरा सकते हैं। यह न सिर्फ नाजायज है, बल्कि अन्याय भी है। ऐसा कर हम उनमें सकरात्मकता का आगाज करने के रास्ते और संकीर्ण करेंगे।
उत्तरांचल में मंदाकिनी की धारा के लिए जान-जोखिम में डालकर पहाड़ी- पहाड़ी हुंकार भरने वाली सुशीला भंडारी का कोई नामलेवा न होता। पटना के सुपर- 30 जैसे गारंटीपू्रफ प्रयास कोई करता ही नहीं। पता कीजिए! मनरेगा, सूचना का अधिकार, जनलोकपाल… सामाजिक बदलाव का सबब बने ये तमाम कदम युवा मनों की ही उपज पायेंगे। ये वाक्ये.. ऐसे कदम सामाजिक बदलाव की भारतीय फिल्म के नायक है।
आज भारत के मानव संसाधन की दुनिया में साख है। आज सिर्फ पांच घंटे सोकर काम करने वाले शहरी नौजवानों की खेप की खेप है। जनसंख्या दर और दहेज हत्या में कमी के आंकड़े हैं। देश के शिक्षा बोर्डों मे ज्यादा प्रतिशत पाने वालों में लड़कों से ज्यादा संख्या लड़कियों की दिखाई दे रही हैं। उडीसा के सुदूर गांव की आदिवासी लड़की भी महानगर में अकेले रहकर पढ़ने का हौसला जुटा रही है।
दिल्ली की झोपड़पट्टी में रहकर बमुश्किल रोटी का इंतजाम कर सकने वाली नन्ही बुआ के बेटे के मात्र 25 साल की उम्र जापान की कंपनी का महाप्रबधक बनने को अब कोई अजूबा नहीं कहता। निर्णय अब सिर्फ ऊंची कही जाने वाली जातियों के हाथ में नहीं है। कम से कम शहर व कस्बों में अब कोई अछूत नहीं है। जिसकी हैसियत है, उसकी जाति नजरअंदाज की जाती है। रिश्ते अब तीन-तेरह की श्रेणी या परिवार की हैसियत से ज्यादा, लड़का-लड़की की शि़क्षा और संभावनाओं पर तय होते हैं। खेतीहर मजदूर आज खेत मालिक की शर्तों पर काम करने को मजबूर नहीं है। बंधुआ मजदूरी का दाग मिट रहा है। ये सकरात्मक बदलाव हैं, जिन्हे युवा मन ही अंजाम दे रहे हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मन की बात कार्यक्रम में युवाओं से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर कई गंभीर बातें कीं। उन्होंने कहा कि ‘कभी-कभी डर लगता है कि कहीं हमारी युवा पीढ़ी रोबोट तो नहीं हो रही’, ‘उनके भीतर जो मानवीय तत्व हैं वे कहीं कुंठित तो नहीं हो रहे’, ‘हम मानवीय गुणों से दूर तो नहीं हो रहे।’ इससे बचने के लिए उन्होंने युवाओं को तकनीक से दूर होकर कुछ समय समाज और अपनों के साथ गुजारने का सुझाव दिया। यदि युवा उनके दिशा-निर्देशों को अमल में लाए हैं तो निश्चित रूप वे नकारात्मक प्रभावों से दूर रहकर स्वयं अपने लिए, अपने अपनों के लिए और देश के लिए कुछ ऐसा कर सकते हैं जो उन्हें सार्थक और महत्वपूर्ण होने का अहसास कराएगा। यह सच है कि युवाओं की समस्या एक सफल भविष्य की प्राप्ति से जुड़ी है, परंतु इसे हासिल करने के लिए वे जिस प्रकार अंधी प्रतिस्पद्र्धा की दौड़ में शामिल हो गए हैं वह चिंतनीय है। यदि हम अपने घर में, आस-पास और सफर में ही देखते हैं तो पाते हैं कि अधिकांश युवा एक आभासी दुनिया में खोए रहते हैं। दरअसल तकनीक के प्रसार के कारण सूचनाओं का भंडार उनके हाथ लग गया है। यदि वे इस ज्ञान को स्वयं अपने पास तक सीमित रखने के बजाय दूसरों के साथ बांटें तो ज्ञानवान होने का यह सफर आनंददायक हो जाएगा। मशीनों का उपयोग हमारी सुविधाओं के लिए एवं पीड़ा दूर करने के लिए हुआ है, परंतु इन पर अत्यधिक निर्भरता हमारी सृजन की क्षमता और स्वतंत्रता को समाप्त कर रही है। लगातार इन्हीं से जुड़े रहने से न सिर्फ शारीरिक समस्याएं पैदा हो रही हैं, बल्कि युवा वर्ग समाज से और अपनों से भी दूर हो रहा है और अपना महत्वपूर्ण समय नष्ट कर रहा है।
Bharat mei yuwao ki sakriye bhagidaari