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जसवंत सिंह रावत : वीरता के पर्याय

जसवंत सिंह रावत : वीरता के पर्याय
  • PublishedSeptember , 2019

टीम हिन्दी

भारत-चीन युद्ध के दौरान चीनी सेना से अकेले लोहा लेने वाले उत्तराखंड के राइफलमैन जसवंत सिंह रावत की शौर्यगाथा आज भी लोगों के जुबान पर है। बीते दिनों वह उस समय एक बार फिर चर्चा में आए थे, सोशल मीडिया पर धूम मची थी, जब उन पर बनी फिल्म 72 आवर्स: मार्टियर हू नेवर डायड’ रिलीज हुई थी। फिल्म को पॉजिटिव रिव्यू मिले। फिल्म के निर्देशन से लेकर कलाकारों के अभिनय तक की खूब तारीफ हुई। जिसने भी जसवंत सिंह की वीरता को पर्दे पर देखा, उसका सीना गर्व से चैड़ा हो गया।

फिल्म के डॉयलॉग दर्शकों की जुबान पर चढ़ चुके हैं। फिल्म में युद्ध के दौरान जसवंत सिंह कहते हैं ‘हम लोग लौटें न लौटें, ये बक्से लौटें न लौटें, लेकिन हमारी कहानियां लौटती रहेंगी…’ युद्ध में जब चीनी सेना भारतीय सेना पर भारी पड़ने लगती है तो आर्मी ऑफिसर जसवंत सिंह को पोस्ट छोड़ने के लिए कहते हैं, तब वे कहते हैं मरूँगा-यहीं मरुंगा, लेकिन ये पोस्ट नहीं छोडूंगा।

फिल्म के डॉयलॉग देशभक्ति में डूबे हैं, जो कि दर्शकों में जोश भर देते हैं। फिल्म में युद्ध के दौरान गोली लगने पर जसवंत सिंह और उनके सहयोगी कहते हैं- फौजी पर जंक न लगे इसलिय होती हैं जंग। जसवंत सिंह के डॉयलॉग ‘तुम्हारे आने वाले कल के लिए उन्होंने अपना आज कुर्बान कर दिया…में शहीदों के बलिदान की भावना नजर आती है। फिल्म के डॉयलॉग्स दर्शकों में जोश भरने के साथ ही उन्हें भावुक कर देते हैं। फिल्म को दर्शकों की खूब तारीफ मिली।
बता दें कि शहीद राइफलमैन जसवंत सिंह रावत पौड़ी गढ़वाल के मूल निवासी थे। साल 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान उन्होंने चीनी सेना से अकेले लोहा लेते हुए भारतीय सीमा की रक्षा की थी। 300 चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतारने के बाद जसवंत सिंह रावत शहीद हो गए थे। रावत का जन्म 19 अगस्त, 1941 को हुआ था। उनके पिता गुमन सिंह रावत थे। जिस समय शहीद हुए उस समय वह राइफलमैन के पद पर थे और गढ़वाल राइफल्स की चौथी बटालियन में सेवारत थे। उन्होंने 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान अरुणाचल प्रदेश के तवांग के नूरारंग की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई थी।

1962 का भारत-चीन युद्ध अंतिम चरण में था। 14,000 फीट की ऊंचाई पर करीब 1000 किलोमीटर क्षेत्र में फैली अरुणाचल प्रदेश स्थित भारत-चीन सीमा युद्ध का मैदान बनी थी। यह इलाका जमा देने वाली ठंड और दुर्गम पथरीले इलाके के लिए बदनाम है। इन इलाकों में जाने भर के नाम से लोगों की रूह कांपने लगती है लेकिन वहां हमारे सैनिक लड़ रहे थे। चीनी सैनिक भारत की जमीन पर कब्जा करते हुए हिमालय की सीमा को पार करके आगे बढ़ रहे थे। चीनी सैनिक अरुणाचल प्रदेश के तवांग से आगे तक पहुंच गए थे। भारतीय सैनिक भी चीनी सैनिकों का डटकर मुकाबला कर रहे थे।

कहा जाता है कि चीनी सैनिक उनके सिर को काटकर ले गए। युद्ध के बाद चीनी सेना ने उनके सिर को लौटा दिया। अकेले दम पर चीनी सेना को टक्कर देने के उनके बहादुरी भरे कारनामों से चीनी सेना भी प्रभावित हुई और पीतल की बनी रावत की प्रतिमा भेंट की। कुछ कहानियों में यह कहा जाता है कि जसवंत सिंह रावत ने खुद को गोली नहीं मारी थी बल्कि चीनी सैनिकों ने उनको पकड़ लिया था और फांसी दे दी थी।

सेना के जवानों का मानना है कि अब भी जसवंत सिंह की आत्मा चौकी की रक्षा करती है। उनलोगों का कहना है कि वह भारतीय सैनिकों का भी मार्गदर्शन करते हैं। अगर कोई सैनिक ड्यूटी के दौरान सो जाता है तो वह उनको जगा देते हैं। उनके नाम के आगे शहीद नहीं लगाया जाता है और यह माना जाता है कि वह ड्यूटी पर हैं।

जिस चौकी पर जसवंत सिंह ने आखिरी लड़ाई लड़ी थी उसका नाम अब जसवंतगढ़ रख दिया गया है और वहां उनकी याद में एक मंदिर बनाया गया है। मंदिर में उनसे जुड़ीं चीजों को आज भी सुरक्षित रखा गया है। पांच सैनिकों को उनके कमरे की देखरेख के लिए तैनात किया गया है। वे पांच सैनिक रात को उनका बिस्तर करते हैं, वर्दी प्रेस करते हैं और जूतों की पॉलिश तक करते है। सैनिक सुबह के 4.30 बजे उनके लिए बेड टी, 9 बजे नाश्ता और शाम में 7 बजे खाना कमरे में रख देते हैं।

Jaswant singh rawat

Written By
टीम द हिन्दी

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