रहीम के दोहे में सामाजिक समरसता

टीम हिन्दी
दोहे की प्रकृति ‘गागर में सागर’ भरने की होती है। दिल की जितनी गहराई से उठा भाव दोहे की शक्ल लेता है, उतना ही गहरा होता है उसका घाव। रहीम के दोहों में ये दोनों खूबियाँ हैं। उनमें तेज धार है और ग़जब का पैनापन भी। तभी तो वह दिलो-दिमाग़ को झकझोर देते हैं। उनके नीतिपरक दोहों में जहां अपने-पराए ऊंच-नीच तथा सही-गलत की समझ है, वहीं ज़िन्दगी के चटक रंग भी श्रृंगार के रूप में दिखाई देते हैं। रहीम की ज़िन्दगी पर जहां एक ओर तलवार की चमक का साया रहा, वहीं उन्हें सियासत की शतरंजी चालों का म़ुकाबला भी क़दम- क़दम पर करना पड़ा।
उन्होंने अपनी ज़िन्दगी में बहुत कुछ ऐसा महसूस किया जिसके बारे में उनके ही माहौल में रहने वाला कभी सोच भी नहीं सकता, फिर आम आदमी की तो बात ही क्या है। क्योंकि ऐसी सोच के लिए जिस दूरदृष्टि और ऊंचे दर्जे की संवेदना की जरूरत हुआ करती है, वह उसमें नहीं होती। रहीम के दोहे इसी मायने में खास है। इनमें उनकी ज़िन्दगी का निचोड़ है। इसीलिए इन्हें पढ़कर कई बार तो आप ऐसा महसूस करेंगे कि क्या ज़िन्दगी को इस नजरिए से भी देखा जा सकता है। यही इनकी सार्थकता है।
ओछे को सतसंग, रहिमन तजहु अंगार ज्यों।
तातो जारै अंग, सीरे पै कारो लगै।।
एक उदर दो चोंच है, पंछी एक कुरंड।
कहि रहीम कैसे जिए, जुदे जुदे दो पिंड।
रहिमन जग की रीति मैं देख्खो रस ऊख में।
ताहू में परतीति, जहां गांठ तहं रस नहीं।
‘खानखाना’ रहीम ने ज़िन्दगी के ऊंच-नीच को काफी नजदीक से देखा-परखा था। यही वजह है कि प्रत्येक दोहे में उनकी आपबीती मुखर होती है।
रहिमन मोम तुरंग चढ़ि, चलिबो पावक मांहि।
प्रेम पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नांहि।।
रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट है जात।
नारायण हू को भयो, बावन आंगुर गात।।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न कोय ॥”
’समाज’ व्यक्तियों का मिला-जुला रुप है, न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म, सुख-दुख का मेल इस समाज में हम देख सकते हैं। यह सामाजिक व्यवस्था आजकल की नहीं है बल्कि प्राचीन काल से ही चली आ रही है, और किसी राष्ट्र का साहित्य उसी समसामयिक सामाजिक व्यवस्था पर आधारित होता है। क्योंकि खरा साहित्य तो अनुभूति के आधार पर ही उभरता है और मनुष्य को सभी तरह के अनुभव इस समाज से प्राप्त हैं। बतौर कुछ अनुभव घर-परिवार, मंदिर-मस्जिद, प्राणी-जीवजंतुओं से प्राप्त करता है पर ये सभी तो समाज के एक अंग ही हैं ना? समाज के बगैर मनुष्य जीने की कल्पना भी नहीं कर सकता। अच्छे एवं कडवे अनुभव तो समाज में होते ही रहते हैं। क्योंकि समाज में सभी लोग अच्छे ही होते हैं या घटनेवाली घटनाएँ सभी अच्छी ही होती है यह कहना बहुत ही मुश्किल बन पडता है। सो इस व्य्वस्था के बारे मे रहीम जी का कहना है-
“दोनों रहिमन एक से, जों लों बोलत नाहिं।
जान परत हैं काक पिक, रितु बसंत के माहिं॥”
अर्थात कौआ और कोयल रंग में एक समान होते हैं। जब तक ये बोलते नहीं तब तक इनकी पहचान नहीं हो पाती। लेकिन जब वसंत ऋतु आती है तो कोयल की मधुर आवाज़ से दोनों का अंतर स्पष्ट हो जाता है. ’समाज’ चाहे किसी भी राष्ट्र का हो वहाँ हर धर्म के, हर जाति के लोग रहते हैं, हिन्दू हो या मुसलमान सभी के लिए समाज तो एक समान ही होता है। और यही सामाजिक व्यवस्थ साहित्यकारों के साहित्य को प्रभावित करती है। इसलिए हम भारतीय समाज को भी सहज ही यहाँ के मुसलमान साहित्यकारों के साहित्य में देख सकते हैं। कवि रहीम जी को हम पढते जायेंगे तो जान पायेंगे कि उनके साहित्य पर और जीवन पर भारतीय समाज का गहरा असर है। रहीम मध्यकालीन भारत के कुशल राजनीतिवेत्ता, वीर- बहादुर योद्धा और भारतीय सांस्कृतिक समन्वय का आदर्श प्रस्तुत करने वाले मर्मी कवि माने जाते हैं।
सहकारिता और सहृदयता भारतीय समाज की बूनियाद हैं और ऐसे गुण हम रहीम में पाते हैं। रहीम का स्वभाव अत्यंत कोमल व उदार था तथा उनमें गर्व का लेश मात्र भी न था। यह तो उनके हर एक दोहों से स्पष्ट होता है-
“धनि रहीम जल पंक कहं, लघु जिय पियत अघाय। उदधि बडाई कौन है, जगत पियासो जाय॥”
समाज में अनेक बडे-बडे अमीर लोग रहते हैं, गरीबों की अभावग्रस्त लोगों की सहायता न की तो वे किस काम के। रहीम आगे कहते हैं-
“बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ॥”
रहीम के यहाँ हमेशा विद्वानों और पंडितों की भरमार सी रहती थी तथा वह अत्यंत दानी, परोपकारी और सहृदय पुरुष थे। वह मुसलमान होते हुए भी कृष्ण- भक्त थे और इसलिए हिन्दी काव्य के प्रति उन्हे आकर्षण भी था तथा उनकी कृतियों में कृष्ण के प्रति अत्यंत प्रेम की झलक भी दृष्टिगोचर होता है। हिन्दी साहित्य में भक्ति काल के कृष्ण भक्तों में रहीम भी माने जाते हैं। उदाहरण-
“जो बड़ेन को लघु कहें, नहीं रहीम घटी जाहिं।
गिरधर मुरलीधर कहें, कछु दुःख मानत नाहिं॥”
यानी रहीम कहते हैं कि बड़े को छोटा कहने से बड़े का बड़प्पन नहीं घटता, क्योंकि गिरिधर (कृष्ण) को मुरलीधर कहने से उनकी महिमा में कमी नहीं होती.। अकबर के यहाँ रहते हुए भी रहीम को महाराणा प्रताप पर अटूट श्रध्दा थी। कहते हैं एक बार गोस्वामी तुलसीदास जी ने एक ब्राह्मण को जिसे अपनी पुत्री के विवाह हेतु धन की आवश्यकता थी। तो दोहे की यह पंक्ति लिखकर रहीम के पास भेज दिया-
“सुरतिय, नरतिय, नागतिय, सब चाहत अस होय।”
रहीम ने उस ब्राह्मण का अत्यंत आदर-सत्कार किया और उसे बहुत ही धन देकर उक्त दोहे की पूर्ति इस प्रकार कर तुलसीदास के पास वापिस भेज दिया:-
“गोद लिए हुलसी फिरै, तुलसी सो सुत होय।”
एक बात स्पष्ट है कि जो सुख समाज में मिल-जुलकर रहने से मिलता है, वैसा सुख अन्य कहीं भी नहीं मिलता। इसी बात को रहीमदास जी ने भी स्पष्ट किया है-
“बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय॥”
मनुष्य को इस समाज में सोचसमझ कर व्यवहार करना चाहिए,, क्योंकि किसी कारणवश यदि बात बिगड़ जाती है तो फिर उसे बनाना कठिन होता है, जैसे यदि एकबार दूध फट गया तो लाख कोशिश करने पर भी उसे मथ कर मक्खन नहीं निकाला जा सकेगा.
Rahim ke dohe
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