बिहारी के दोहे में सामाजिक संदेश
टीम हिन्दी
बिहारी शाहजहाँ के समकालीन थे और राजा जयसिंह के राजकवि थे। राजा जयसिंह अपने विवाह के बाद अपनी नव-वधू के प्रेम में राज्य की तरफ बिलकुल ध्यान नहीं दे रहे थे तब बिहारी ने उन्हें यह दोहा सुनाया था-
नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल
अली कली में ही बिन्ध्यो आगे कौन हवाल
अर्थात – न हीं इस काल में फूल में पराग है, न तो मीठी मधु ही है। अगर अभी से भौंरा फूल की कली में ही खोया रहेगा तो आगे न जाने क्या होगा। दूसरे शब्दों में, ‘हे राजन अभी तो रानी नई-नई हैं, अभी तो उनकी युवावस्था आनी बाकी है। अगर आप अभी से ही रानी में खोए रहेंगे, तो आगे क्या हाल होगा।
सुनी पथिक मुँह माह निसि लुवैं चलैं वहि ग्राम
बिनु पूँछे, बिनु ही कहे, जरति बिचारी बाम
विरह की आग में जल रही प्रेमिका के अंदर इतनी अग्नि होती है मानो माघ के माह में भी लू सी ताप रही हो जैसे की वो किसी लुहार की धौकनी हो |
बिहारी के काव्य में जिस विलासिकता का वर्णन है, उसका आधार नायिका-वर्णन है। नगर की नायिकाएँ उनमें ‘तिय छबि माया-ग्राहिणी बनकर उभरी हैं। ‘कहत नटत रीझत खिझत मिलित खिलित ललियात। भरे भौन में होत हैं नयन ही सों बात-उसकी भंगिमाओं, चेष्टाओं, मन:सिथतियों के चटकीले चित्रा खिंचे हुए हैं। अटारियाँ उनकी केलि-क्रीड़ाओं से खिल-खिला उठती थीं। उनके गृहों, घाटों, बांटों और सघन कुंजों में जीवन की चंचलता का राज्य था। इसलिए बिहारी ने अपने काव्य में युगीन समाज का आंखों देखा चित्राण बड़ी र्इमानदारी से किया है। चढ़ती जवानी में विषय-रस में डूबने वालों की दशा कितनी अनोखी है-
इक भीजैं, चहलें परैं, बूढ़ै, बहैं हजार।
किते न औगुन जग करैं वै, नै चढ़ती बारÏ
उस युग में तरयोना, सींक, बेसर, खूभी, लौंग, छला, आरसी, अनवट आदि का कितना प्रचलन था, यह तो बिहारी के दोहों में प्रयुक्त आभूषणों में उलिलखित ही है। पारदर्शी वस्त्राों में लिपटी, पंचतोरिया पहनती, ताफता से दुरंगी बनी देह-धुति धारिणी जगर-मगर करती नायिकाएँ सामंती सरदारों और धनिकों के मनोरंजन का आकर्षक साधन थीं। जलचादर के दीप-सी जगमगाती देह-धुति श्वेत साड़ी पहने हुए किसे नहीं भाती। कालिंदी-जल में झिलमिलाते चंद्रमा-सा नील पट में सुशोभित नायिका-मुख नागर-जीवन का ही दृश्य प्रस्तुत करता है। इतना ही नहीं गर्वीली नायिकाएँ नागरता के उस वातावरण में ऐसी बनी-ठनी घूमती थीं कि नजरों से नजरें मिलाए जाती थीं परंतु नीचे देखकर मुंह मोड़ती हुर्इ भीतर चली जाती थीं-
भौहं ऊंचै, आंचार उलटि, मौर, मौरि मुंह मोरि।
नीठि नीठि भीतर गर्इ, डीठि डीठि सों जोरिÏ
ऋतुओं के अनुकूल पीत, केसरिया, सेत, नीले वस्त्रों की बहार, कोकिल और पपीहे की मधुर पुकार, नृत्य-संगीत की ध्वनि, गुलाल-अमीर की झोली, पिचकारी और रंगबिहार, भाग-दौड़, मृदंग-बंशी आदि का स्वर बिहारी के दोहों में सुनार्इ पड़ता है। गुलाल की मूठ चलाने का रंग-ढंग देखते ही बनता है-
पीठि दिए हीं नैक मुरि, कर घूंघट पट टारि।
भरि गुलाल की मूठि सौं, गर्इ मूठि सीं मारिÏ
और हिंडोरे में झूलती नायिका के गिरने और नायक द्वारा दौड़कर बीच में ही उसे संभाल लेने और जी भर रस ले लेने का वर्णन ऐसा लगता है जैसे बिहारी का अपना अनुभव हो या निकटवर्ती किसी चिर परिचित का ही रहा हो, जिसे शब्दों में बांध दिया गया है-
हरि हिंडोरे गगन तें, परी परी सी टूटि।
धरी धाय पिय बीच ही, करी खरी रस लूटिÏ
‘बेस-संधि-संक्रोन (संक्रमण) तो ‘काहू पुण्यन पाइए की बात बिहारी ने कही है। सामंतीय नागर-दृषिट में वय-संधि के संक्रमणकाल की चेष्टा कितनी आकर्षक रही है। ‘स्तन, मन, नैन, नितंब को बड़ी इजाफा कीन- में यौवन के आगमन से फैलते युवतियों के अंगों को बिहारी ने गली-मुहल्लों में देखा ही होगा। यह सिथति ग्राम और नगरवासिनी दोनों प्रकार की नारियों में हो सकती है, परंतु बिहारी बहुधा मथुरार्इ या जयपुरिया नागरिकाओं के संपर्क में ही आते रहते थे। ‘नव-नागर के तन पुलक की चर्चा भी बिहारी ने बड़े जोर-शोर से की है। रकम के घटने-बढ़ने के प्रसंग को उठाकर बिहारी ने उसी दोहे में समाज के जीवन की सिथति का संकेत दे दिया है।
बिहारी के समय में मित्र-मंडली कैसी होती थी। मित्रों के लिए बिहारी ने कहा हुआ है कि समान सिथति और वय वालों में मित्राता शोभी देती है। संग भी समान सिथति वालों का ही अच्छा लगता है छोटों से बड़ों का नहीं। परंतु बिहारी ने कहीं मित्रों में अनबन का अनुभव भी गहरे में किया था। इसीलिए तो कवि बिहारी ने कहा कि यदि चाहते हो कि चटक-मटक न घटे और चित्त भी मैला न हो, चित्त में संदेहास्पद सिथति न आए। दिल बुरा न माने तो रजोगुणरूपी रज को स्नेह से चिकने बने चित्त को छूने मत दो। तेल लगी वस्तु पर धूल का जमना और वस्तु का मैला हो जाना सबने ही देखा है, ऐसे ही अकड़, अभिमान, पद का घमंड आदि दिखाने पर स्नेही मित्रों का चित्तमैला हो जाता है-
जौ चाहत चटक न घटे, मैलो होइ न मित्त।
रज राजसु न छुवाइ, तौ नेह-चींकनौं चित्तÏ
और बिहारी ने अपने काल के समाज में गंदी नीयत वाले मित्रों को भी देखा था। शायद उनका वास्ता भी पड़ा हो। इसीलिए उन्होंने कहा कि अपनी दुर्दशा बनाकर धन-संग्रह मत करो। खाने और खरचने के बाद जो बच जाए तो करोड़ों रुपए भी जुड़ जाएँ, तो अच्छा है-
मीत, न नीति गली तु जो धरियै धनु जोरि।
खाएँ खरचें जौ जुरै, तौ जोरियै करोरि।
इससे थुरथुरे हाथों वाली बहू को भिखारियों को भिक्षा देने पर लगने वाले कंजूस ससुर की अपेक्षा लोभ कंजूसों का चित्रा गहरे रंग में बना है। कंजूस तो हर युग में रहते हैं परंतु बिहारी के काल के कंजूस तो खाने-खरचने के अभ्यस्त नहीं लगते और बिहारी की मित्रा-मंडली के किसी कंजूस कारनामे ने ही उन्हें ऐसी व्यंग्योकित कहने के लिए विवश कर दिया होगा।
बिहारी मूलतः श्रृंगारी कवि हैं। उनकी भक्ति-भावना राधा-कृष्ण के प्रति है और वह जहां तहां ही प्रकट हुई है। सतसई के आरंभ में मंगला-चरण का यह दोहा राधा के प्रति उनके भक्ति-भाव का ही परिचायक है –
मेरी भव बाधा हरो, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाई परे, स्याम हरित दुति होय।
बिहारी ने नीति और ज्ञान के भी दोहे लिखे हैं, किंतु उनकी संख्या बहुत थोड़ी है। धन-संग्रह के संबंध में एक दोहा देखिए
मति न नीति गलीत यह, जो धन धरिये ज़ोर।
खाये खर्चे जो बचे तो ज़ोरिये करोर।।
बिहारी की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। इसमें सूर की चलती ब्रज भाषा का विकसित रूप मिलता है। पूर्वी हिंदी, बुंदेलखंडी, उर्दू, फ़ारसै आदि के शब्द भी उसमें आए हैं, किंतु वे लटकते नहीं हैं। बिहारी का शब्द चयन बड़ा सुंदर और सार्थक है। शब्दों का प्रयोग भावों के अनुकूल ही हुआ है और उनमें एक भी शब्द भारती का प्रतीत नहीं होता। बिहारी ने अपनी भाषा में कहीं-कहीं मुहावरों का भी सुंदर प्रयोग किया है। जैसे –
मूड चढाऐऊ रहै फरयौ पीठि कच-भारु।
रहै गिरैं परि, राखिबौ तऊ हियैं पर हारु।।
Bihari ke dohe me samajik sandesh